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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
कर्मबन्धन से बंधता है। जो हम कल थे, आज भी हैं। हमारे सगे सम्बन्धी भी वे ही हैं जो पहले थे। जिसे हम कर्ज देते हैं कुछ दिनों के बाद उससे ही वसूल करते हैं। यदि सब सर्वथा क्षणिक होते तो न देने वाला लेने वाले को पहचानता और न लेने वाला देने वाले को। ऐसी स्थिति में हमारा सारा ही लोक व्यवहार नष्ट हो जाता है।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि उत्पत्ति और क्षय को एक साथ स्वीकार करने पर पूर्व पदार्थ और उत्तर पदार्थ भी जो उनके धर्मी हैं, उनका एक ही समय में अवस्थित होना प्रमाणित होगा। और यदि उत्पत्ति और क्षय को उन पदार्थों का धर्म न माना जाए तो कोई वस्तु ही सिद्ध नहीं होगी-वस्तु रूप में उनका अस्तित्व ही घटित नहीं होगा। इस प्रकार क्षणभंगवाद-निरूपित वस्तु का सर्वथा अभाव कथमपि संगत नहीं है। अतएव जैनदृष्टि से वस्तु का पर्याय (अवस्था) परिवर्तन होता है। इस अपेक्षा से वह अनित्य है। ऐसा मानना ही उचित है।
यह आत्मा परिणामी-परिणमनशील है। वह भवान्तरगामी नए जन्म को प्राप्त करने वाली होती है, अतएव किसी अपेक्षा से भूतों से भिन्न है। वह देह के साथ परस्पर घुल मिलकर रहता है इसलिए उससे अनन्य अभिन्न भी है। आत्मा कर्मों के द्वारा नरकादि गतियों में विभिन्न रूपों में बदलती रहती है इसलिए वह अनित्य और सहेतुक भी है तथा आत्मा के निज स्वरूप का कभी नाश नहीं होता, इस कारण नित्य और अहेतुक भी है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 46 [367])।