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क्षणिकवाद
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वस्तुतः इस जगत् में प्राणियों का जन्म अनेक प्रयोजनों के सम्यक् निष्पादन के लिए होता है। वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अर्थी होता है, किन्तु क्षणिकवाद के अनुसार तो प्राणी क्षणिक ठहरता अतः उक्त प्रयोजन वह सार्थक नहीं कर पायेगा। जिस कार्य को उसने किया, उसे भोगने का अवसर ही नहीं मिलेगा। फलतः उसमें उत्तरदायित्व का अभाव सिद्ध होगा, जिससे संसार की उत्पत्ति के लिए ही कोई कारण ठीक नहीं जान पड़ता। अतः भवभंग का दोष अर्थात् संसार के भंग होने का प्रसंग उपस्थित होगा और जब आत्मा ही नहीं है, तब स्वर्ग-नरक तथा चतुर्गतिरूप संसार गमन आदि की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी, गड़बड़ा जाएगी। तब बौद्धधर्मानुसार निर्वाण प्राप्ति हेतु जो अष्टांगिक मार्ग का विधान है, यह सिद्धान्त भी गलत हो जाएगा। क्योंकि कर्मफल के क्षणिक होने पर मोक्ष की प्राप्ति असंभव है।
सामान्यतः यह माना जाता है कि स्मरण करने वाला और अनुभव करने वाला एक ही व्यक्ति होता है अथवा कहे पदार्थ का स्मरण वही करता है, जिसने उसका अनुभव किया। परीक्षा हेतु स्मरण करने वाला ही तो परीक्षा कक्ष में जाकर लिख सकता है, किन्तु क्षणिकवाद को मानने पर यह अवधारणा सार्थक नहीं हो पाती। क्योंकि आज स्मरण करने वाला व्यक्ति तथा कल अनुभव करने वाले व्यक्ति में एकता सिद्ध नहीं होती। कल स्मरण करने वाला अतीत के गर्भ में विलीन हो गया और जो उसका स्मरण आज कर रहा है, वह वर्तमान में विद्यमान है। ऐसी स्थिति में स्मृति जैसी मन की क्रिया या व्यवहार की व्यवस्था भी सार्थक नहीं रहती। किन्तु वास्तविक जगत् में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता। पदार्थ का स्मरण वही कर सकता है, जिसने उसका अनुभव किया हो। अतः स्मृति भंग भी क्षणिकवाद के निराकरण में व्यावहारिक प्रमाण है।
क्षणिकवाद मानने पर 'यह वही है' इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता, दानादि का फल और संचित पापों का भोग नहीं बनता, क्योंकि जिसने दान दिया या जिसने पाप किया वह तो नष्ट हो गया तब दान का फल किसे मिलेगा और संचित पापों के फल को कौन भोगेगा। इसी तरह जिसने कर्म फल का बंध किया वह तो क्षणिक होने से नष्ट हो गया तब मोक्ष किसे होगा। किन्तु वास्तविक जगत् में जो दान देता है उसे ही इस लोक या परलोक में उसका फल मिलता है। जो पाप कर्म करता है वही उसका फल भी भोगता है, जो