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क्षणिकवाद
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भी 'गाय' की संज्ञा का लोप नहीं होता; लोप तो तभी होता है जबकि उसे काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देता है। टुकड़े-टुकड़े करके बैठे हुए (कसाई) के लिये 'गो' संज्ञा का लोप हो जाता है, 'मांस' की संज्ञा प्रवृत्त होती है। उसे ऐसा नहीं लगता “मैं बैल को बेच रहा हूँ, या ये लोग बैल को ले जा रहे हैं" अपितु उसे लगता-“मैं मांस बेच रहा हूँ। ये लोग भी मांस ले जा रहे हैं।" वैसे ही यह भिक्षु पूर्वकाल में जब बाल-पृथग्जन या गृहस्थ था तब भी, प्रव्रजित हुआ और तब भी (उसके लिये स्वयं के बारे में) सत्व, पुरुष या पुद्गल-संज्ञा का लोप नहीं हो सका। यह लोप तब तक नहीं होता जब तक कि यथास्थित, यथाप्रणिहित इसी का स्थूल (महाभूतों) के रूप में निर्धारण करते हुए धातुओं के रूप में प्रत्यवेक्षण नहीं करता। धातुओं के रूप में प्रत्यवेक्षण करने पर सत्व-संज्ञा का लोप हो जाता है, चित्त धातु के अनुसार ही स्थित होता है (विसुद्धिमग्ग, समाधिनिद्देस, भाग-2, पृ. 226-228, बौ.भा.वा.प्र. [363])। ।
इस प्रकार के व्यवस्थान से काय में “यह सत्व है, पुद्गल है, आत्मा है' ऐसी संज्ञा नष्ट होकर धातुसंज्ञा ही उत्पन्न होती है" साधक इस संज्ञा को उत्पन्न कर अपने आध्यात्मिक और बाह्य रूप का चिन्तन करता है। वह आचार्य के पास ही केश-लोम-नख-दन्त आदि कर्मस्थान को ग्रहण कर उनमें भी धातुचतुष्ट्य का व्यवस्थान करता है; फिर पृथ्वी आदि महाभूतों के लक्षण, समुत्थान, नानात्व, एकत्व, प्रादुर्भाव, संज्ञा, परिहार और विकास का चिन्तन करता है। उनमें अनात्म संज्ञा, दुःख संज्ञा और अनित्य संज्ञा उत्पन्न करता है और उपचार समाधि प्राप्त करता है। यह चतुर्धातुवाद भूतसंज्ञक रूपस्कन्धमय होने के कारण पंचस्कन्धों की तरह क्षणिक है। अतः चतुर्धातुवाद भी क्षणिकवाद का ही एक रूप है।
चतुर्धातुवाद में पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि मूल तत्त्व के रूप में स्वीकृत है। चार्वाक दर्शन इसमें आकाश तत्त्व को और स्वीकृत करता है तथा इन पांच तत्त्वों के संयुक्त योग को देह का आधार मानता है। चारभूतवादी तो आकाश को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि आकाश तो खाली/शून्यस्थान है, जैसा कि चतुर्धातुवाद में है, किन्तु यह चार्वाक से इसलिए भिन्न है कि वह इनसे भिन्न परलोक स्वर्ग-नरक आदि में विश्वास रखते हैं तथा इन चार धातुओं को जगत् की उत्पत्ति का मूल मानते हैं।