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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
मनोमय, प्राणशरीर, प्रकाश स्वरूप सत्वसंकल्प, आकाश शरीर, सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगन्ध, सर्वरस इस सम्पूर्ण जगत् को सब ओर से व्याप्त करने वाला वाक्रहित और सम्भ्रमशून्य है । मेरे अन्तर हृदय में मेरी यह आत्मा धान से, यव से, सरसों से, श्यामक से या श्यामाक तंदुल से भी अणुतर है । मेरे हृदय में यह मेरी आत्मा पृथ्वी से बड़ी है, अन्तरिक्ष से बड़ी है, द्युलोक से बड़ी है, इन लोकों से बड़ी है। यह आत्मा सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगन्ध, सर्वरस है, इन सबमें व्याप्त है, वाक् रहित और सम्भ्रमशून्य है । किसी बात में उद्विग्न होने वाली नहीं है । यह मेरी आत्मा मेरे अन्तर हृदय में ब्रह्म है । जब मैं इस संसार से जाऊँगा तब मैं उससे एकरूप हो जाऊँगा । जिसे यह ज्ञान हो गया, उसके लिए कोई भी विचिकित्सा शेष नहीं है (छान्दोग्योपनिषद्, 3.14.2-4 [337])।
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छान्दोग्योपनिषद् के ही एक अन्य प्रसंग में विश्व का ब्रह्म के साथ तथा ब्रह्म का आत्मा के साथ अद्वैत (एकात्म ) इस सिद्धान्त की सुन्दर व्याख्या मिलती है
श्वेतकेतु आरुणि का पुत्र होता है, जब वह विद्याध्ययन पूर्ण कर घर लौटा, तब उसे ज्ञान का बहुत अभिमान हो गया । वह अपने को बहुत बड़ा विचारक समझता है। तब आरुणि ऋषि कहते हैं कि तू बड़ा अभिमानी व अविनीत है और अपने को महान् विद्वान् प्रवचनकर्ता समझता है। तू यह बता कि क्या तूने उस सिद्धान्त की खोज की है, जिसके द्वारा अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात विशेष रूप से ज्ञात हो जाता है । भगवन वह आदेश कैसा है ? हे सोम्य ! जैसे एक मृत पिण्ड से सब मृण्मय वस्तु समूह विज्ञात हो जाता है, अन्तर केवल शब्द में है, वह केवल एक नाम है परन्तु सत्य तो 'मृत्तिका' ही है तथा जैसे हे सोम्य ! एक लोहमणि (स्वर्ण - पिण्ड ) के द्वारा सब स्वर्णनिर्मित वस्तुसमूह ज्ञात हो जाता है, अन्तर केवल शब्द में है, वह केवल एक नाम है परन्तु सत्य तो स्वर्ण है और जैसे हे सोम्य ! एक नख - कृन्तन (नहन्ना) से लोह निर्मित सब वस्तु समूह जाना जाता है, अन्तर केवल शब्द में है, वह केवल एक नाम है परन्तु सत्य तो लोहा ही है - हे सोम्य ! इसी प्रकार वह सिद्धान्त है। ‘निश्चय ही मेरे पूज्य गुरुदेव इस सिद्धान्त को नहीं जानते थे, क्योंकि यदि वे जानते होते तो मुझे क्यों नहीं बताते ? तो भगवन्, आप ही मुझे इसका ज्ञान दीजिए !' 'ऐसा ही होगा, हे सोम्य' । उसके पिता ने कहा - 'हे