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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
जैन आगम और जैनदर्शन सामान्यतः प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारता है, किन्तु यत्र तत्र जैन साहित्य में अन्य मतों का भी विवेचन हुआ है। उसी सन्दर्भ में महावीरयुग में एक ऐसे मत का उल्लेख मिलता है जो समस्त चराचर जगत् में एक ही आत्म तत्त्व को स्वीकार करता है। सर्वप्रथम आचारांगसूत्र में एक मत का विवरण मिलता है, जहाँ अहिंसा की चर्चा के प्रसंग में कहा गया है कि हे पुरुष! जिसे तू हनन करने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है (आचारांगसूत्र, I.5.5.101 [330])। इस प्रकार यहां स्पष्ट रूप से एक आत्मा की सत्ता के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा हो रही है। इस प्रकार जैन मान्यतानुसार यदि आत्मा अनेक है तो मारने वाला और मार खाने वाला भिन्न होना चाहिए किन्तु जहां आत्मा एक ही हो, वहां हिंसक
और हिंस्य एक ही होता है। किन्तु जैन मान्यतानुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता है और इस जगत् में अनन्त आत्माएँ हैं। कहा जा सकता है कि उपनिषद् दर्शन के प्रभाव से ऐसा विवेचन हुआ हो।
वस्तुतः यहां अहिंसक दृष्टि से सभी जीवों में समान आत्मौपम्य भाव दर्शाने के लिए उपनिषदिक अद्वैतशैली का आश्रय लिया गया है।
एक अन्य प्रसंग में किन्हीं मतवादियों के अनुसार-एक ही पृथ्वीस्तूप (मृत-पिण्ड) नानारूपों में दिखाई देता है, उसी प्रकार समूचा लोक एक विज्ञ (ज्ञानपिण्ड) है, वह नानारूपों में दिखाई देता है (सूत्रकृतांग, I.1.1.9 [331])। उक्त प्रतिपादित सिद्धान्त एकात्मवाद वेदान्त दर्शनमान्य है।
भद्रबाहु इसे एकात्मक (सूत्रकृतांगनियुक्ति, पृ. 25 [332]), अर्थात् एकात्मवाद और शीलांक इसे एकात्म अद्वैतवाद नाम देते हैं (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 13 [333]), किन्तु जैन आगमों में इस सिद्धान्त को किसी नाम विशेष से अभिहित नहीं किया, न ही इस सिद्धान्त की व्याख्या ही मिलती है। चूर्णिकार जिनदासगणी (7वीं ई. शताब्दी) ने इस मत की व्याख्या दो प्रकार से की हैं
___1. एक पृथ्वीस्तूप नाना प्रकार का दिखता है। जैसे-निम्नोन्नत भूभाग, नदी, समुद्र, शिला, बालू, धूल, गुफा, कंदरा आदि भिन्न-भिन्न होने पर भी पृथ्वी से व्यतिरिक्त नहीं दिखते।