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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना आवश्यक है (विशेषावश्यकभाष्य, 1582 [347])। ईश्वर कृष्ण ने भी जन्म-मरण, इन्द्रियों की भिन्नता, प्रत्येक की अलग-अलग प्रवृत्ति और स्वभाव तथा नैतिक विकास की भिन्नता के आधार पर आत्मा की अनेकता सिद्ध की (सांख्यकारिका, 18 [348])।
इस प्रकार आगम युग के पश्चात् भी एकात्मवाद के विरोध में अथवा कहें समाधान में चर्चाएँ होती रही और एक नई दृष्टि मिलती रही।
उक्त तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि जैन आगम जहाँ एक ओर द्रव्यदृष्टि से आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यायार्थिक दृष्टि से एक ही आत्मा में चेतना के पर्याय ज्ञान-दर्शन के प्रवाह रूप से अनेकत्व को सिद्ध किया है। भगवान महावीर की दृष्टि में उपनिषद् का एकात्मवाद, सांख्य का अनेकात्मवाद तथा बौद्धों का क्षणिक आत्मवाद सभी समन्वित है।