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चतुर्थ अध्याय क्षणिकवाद
पंचभूतवाद आदि अध्यायों में हम देख चुके हैं कि विभिन्न मतवादी सबसे पहले बाह्य दृष्टि से इन्द्रिय ग्राह्य भूत को ही मौलिक तत्त्व मानते थे। किन्तु कालक्रम से उन्होंने आत्मतत्त्व को भी स्वीकार किया, जो इन्द्रियों की पहुंच से बाहर था। प्राण, मन और प्रज्ञा से परे उस आत्म तत्त्व का ज्ञान सरल नहीं था अतः उसका ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया जाए? वह कैसा है? उसका स्वरूप क्या है? इन प्रश्नों के समाधान में आत्मविद्या का जागरण हुआ। उपनिषद् युग में आत्मा की शोध का लोगों (विचारकों) को ऐसा चिंतन हुआ कि उन्हें आत्मसुख के अतिरिक्त इस संसार के भोग या स्वर्ग के सुख व्यर्थ प्रतीत हुए और उन्होंने तपश्चर्या एवं त्याग-साधना का मार्ग अपनाया। किन्तु अतीन्द्रिय आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में जब प्रत्येक व्यक्ति मनगढंत कल्पना करने लगा अर्थात् आत्म विद्या का अतिरेक होने लगा। ऐसी स्थिति में उस औपनिषदिक आत्मविद्या के विषय में भी प्रतिक्रिया का सूत्रपात होना स्वाभाविक था और वह प्रतिक्रिया हमें भगवान् बुद्ध के उपदेशों में सुनाई देती है। विश्व के मूल में मात्र एक ही शाश्वत आत्मा-ब्रह्म तत्त्व है इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं यह सभी उपनिषदों का सार तत्त्व है। उपनिषद् के ऋषियों ने यहाँ तक कह दिया कि अद्वैत तत्त्व के होते हुए भी जो व्यक्ति संसार में भेद की कल्पना करते हैं, वे अपने सर्वनाश को ही न्यौता देते हैं (बृहदारण्यकोपनिषद्, 4.4.19; तथा कठोपनिषद् 4.11 [349])। निःसंदेह यह आत्मवाद के अतिरेक की स्थिति थी। ऐसी परिस्थिति में भगवान् बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया अर्थात् उपनिषद् में आत्मा के विषय में शाश्वत अद्वैत कथन किया जाता है तथा उसे विश्व का एकमात्र मौलिक तत्त्व माना जाता है, उसका तो खण्डन किया किन्तु आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध नहीं किया। क्योंकि आत्मवाद मानने पर क्षणिकवाद दुष्प्रभावित होता है। इसलिए आत्मा नामक किसी स्थिर पदार्थ की सत्ता का खण्डन किया।