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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
में संवेदन और कर्म-विपाक होता है। जीव की संसारावस्था व्यावहारिक दृष्टि से है। शुद्ध नय की अपेक्षा वह ज्ञान स्वरूप है, सर्वत्र चैतन्यमय है तथा क्षेत्र की अपेक्षा वह लोक परिणामी है । जब तक जीव राग-द्वेष - क्रोध, मान आदि विकारों से ग्रस्त रहता है, तब तक वह संसार में भटकता हुआ, कर्मविपाक को भोगता है। कर्म - बंधनों को तोड़ने के बाद वह लोकाग्र में जा पहुँचता है और शुद्ध चैतन्यमय बन, उस शुद्ध चैतन्यमय स्थिति में वह अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंतआनन्द का अनुभव करता है वह स्वयं ईश्वर बन जाता है 1
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4. महावीरयुगीन आत्मविषयक विभिन्न मतवाद
किसी भी धर्म और नीतिगत सिद्धान्त को उसके आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त के अभाव में सही रूप से नहीं समझा जा सकता । भगवान् महावीर के आत्मवाद या आत्म - सिद्धान्तों को समझने के लिए उनके समकालीन विभिन्न आत्मवादों को समझना आवश्यक है ।
भगवान् महावीर के समकालीन विभिन्न विचारकों की आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न धारणाएँ विद्यमान थीं। कोई उसे नित्य कहता, तो कोई उसे क्षणिक, कोई उसे सूक्ष्म मानता तो कोई विभु । कुछ विचारक उसे कर्ता मानते हैं तो कुछ निष्क्रिय और कूटस्थ नित्य । इन विभिन्न आत्मवादों में मुख्य रूप से देखें तो, उसमें तीन आत्म-विचार प्रमुख थे - एक था उपनिषदों का ब्रह्मवाद अथवा एकात्मवाद, दूसरी ओर बुद्ध का अनात्मवाद और तीसरी विचारधारा थी जैन आत्मवाद अथवा अनेकांतवाद की, जहाँ इन विभिन्न आत्मवादों का समाहार मिलता है 1
जैसा कि पूर्व में बता चुके हैं कि भगवान् महावीर का युग मतवाद बहुलता का युग था अतः उस समय अनेकों मतवाद एवं उनके आत्मवाद अस्तित्व में थे। महावीर युग में निम्न आठ आत्मवाद प्रमुख थे - 1. नित्य या शाश्वत आत्मवाद, 2. अनित्य आत्मवाद या उच्छेद आत्मवाद, 3. अक्रिय आत्मवाद, नियतिवाद, 4. परिणामी आत्मवाद, आत्म कर्तृत्ववाद, पुरुषार्थवाद, 5. सूक्ष्म आत्मवाद, 6. विभु आत्मवाद, 7. अनात्मवाद, 8. ब्रह्मवाद या एकात्मवाद ।