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एकात्मवाद
तात्पर्य यह है कि आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटाबड़ा शरीर मिलता है, उस पूरे शरीर में व्याप्त होकर वह रहता है । शरीर के हर अंश में जीव रहता है । यदि शरीर छोटा होता है तो अपने प्रदेशों का संकोच कर लेता है और यदि शरीर बड़ा होता है तो अपने प्रदेशों को फैलाकर उसमें व्याप्त हो जाता है ।
जैन आगमानुसार आत्मा अणु भी है और विभु भी है । वह सूक्ष्म है तो इतना कि एक आकाश प्रदेश के अनन्तवें भाग में समा सकता है और विभु है तो इतना कि समग्र लोक को व्याप्त कर सकता है ( स्थानांग, 8.114 [ 299] ) ।
जैन आगमों में आत्मा का परिमाण शरीरव्यापी बताया गया है। चैतन्य को जीव का सामान्य लक्षण कहा गया है। उसकी दृष्टि में सब जीव समान है, लेकिन उसका विकास सबमें समान नहीं होता । उसका कारण है- आवरण का तारतम्य। चैतन्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं और कर्मजनित तारतम्य की दृष्टि से वे असमान हैं । भगवती में चैतन्य की दृष्टि से हाथी और कुंथु की समानता बताकर उसके कर्मजनित तारतम्य के दस बिन्दु बतलाए गए हैं। गौतम के प्रश्न के समाधान में भगवान कहते हैं- कुंथु की अपेक्षा हाथी के महत्तर कर्म, महत्तर क्रिया, महत्तर आश्रव, महत्तर आहार, महत्तर नीहार, महत्तर उच्छ्वास, महत्तर निःश्वास, महत्तर ऋद्धि, महत्तर - महिमा और महत्तर द्युति वाला है ( भगवती, 7.8.158 [300] ) ।
हाथी और कुंथु का जीव चैतन्य की दृष्टि से समान है - यह कैसे संभव है ? इसका भी समाधान भगवती में मिलता है । इस प्रश्न का समाधान प्रकाश और ढक्कन के उदाहरण से दिया गया है- दीये पर ढक्कन छोटा है तो वह उस छोटे भाग को प्रकाशित करता है, ढक्कन बड़ा होता है तो वह बड़े भाग को प्रकाशित करता है । इसी प्रकार जीव पूर्वकृत कर्म के अनुसार जिस प्रकार के शरीर का निर्माण करता है, उसे अपने असंख्य आत्म प्रदेशों से चैतन्यमय बनाता है, फिर वह छोटा हो अथवा बड़ा । शरीर का भेद चैतन्य की सत्ता में भेद नहीं डालता। उससे चैतन्य का प्रसार क्षेत्र छोटा-बड़ा हो सकता है। अतः एक अपेक्षा से आत्मा को शरीरव्यापी कहा गया है ( भगवती, 7.8.159 [ 301] ) ।
आत्म-प्रदेशों में संकोच और विस्तार होने के आधार पर आत्मा को स्वदेह परिमाण मानता है। जैसे दीपक की प्रभा अभी पूरे कमरे में व्याप्त है, उसी दीपक