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तृतीय अध्याय
एकात्मवाद भारतीय चिंतन में सर्वाधिक आधारभूत अवधारणा, व्यक्ति का शाश्वत केन्द्रक, जो मृत्यु के बाद भी बचा रहता है, वह है-आत्मा। आत्मा या तो कर्म के बंधन से मुक्त हो, मोक्ष प्राप्त कर लेती है या फिर एक नये जीवन में प्रवेश करती है। आरम्भिक वैदिक ग्रन्थों में आत्मा का उल्लेख प्रायः आत्मवाचक सर्वनाम के रूप में था। बाद में उपनिषदों में यह मुख्यतः दार्शनिक धारणा बन गई। आत्मा मनःशक्ति और शरीर के अन्य अंगों के क्रियान्वयन को संभव बनाती है, जो निःसंदेह उसी के लिए कार्य करते हैं। मनुष्य के प्रत्येक कर्म के पीछे आत्मा वैसे ही निहित है, जैसे ब्राह्मण की गतिविधियों के पीछे ब्रह्म (परम) है, जिसका ज्ञान आनन्द लाता है। यह सार्वभौमिक ब्रह्म का अंग है, कभी-कभी परमात्मा भी कहलाता है। आत्मा की अद्भुत मौलिकता के कारण कुछ लोगों ने इसे ब्रह्म के रूप में माना और कुछ ने इसे ब्रह्म का तत्त्व माना। हालांकि प्रत्येक मत, दर्शन, पद्धति के सामान्य विश्वमत के अनुसार व्याख्याएँ अलग-अलग हैं। ____ 1. आत्मा की व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ एवं परिभाषा
आत्मा शब्द अनेक धातुओं से निष्पन्न होता है। महर्षि यास्क ने भ्वादिगणीय ‘अत् सातत्यगमने'' स्वादिगणीय आप्Mव्याप्तौ धातु से अनेक प्रत्ययों के योग से आत्मा शब्द की सिद्धि मानी है।
द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव (16वीं ई. शताब्दी) ने 'अत्' धातु से आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति कही है। अत् धातु निरन्तर गमन अर्थ में वर्तता है और सब गमन रूप अर्थ धारक धातु ज्ञान अर्थ के धारक हैं। इस कारण जो यथासंभव ज्ञान सुख आदि गुणों में पूर्ण रूप से वर्तता है, वह आत्मा है अथवा शुभ-अशुभ रूप से जो पूर्ण रूप से वर्तता है, वह आत्मा कहलाता है अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इन तीन करके जो पूर्ण रूप से वर्तता है, उसे आत्मा
1. संस्कृत धातुकोश, संपा. युधिष्ठिर मीमांसक, अर्थ सहित, मंत्री रामपाल कपुर ट्रस्ट, बहालगढ़,
1982, पृ. 6 2. वही, पृ. 1