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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
का गुण नहीं हो सकता। इन्द्रियों के स्थान-उपादान या मूलकारण इस प्रकार हैं-श्रोत्रेन्द्रिय का स्थान आकाश है क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय सुषिर-छिद्र या रिक्तमूलक है। घ्राणेन्द्रिय या नासिका का मूल कारण पृथ्वी है क्योंकि घ्राणात्मकता की दृष्टि से पृथ्वी स्वरूप है। नेत्र का उपादान कारण तेज या अग्नि है, क्योंकि नेत्रेन्द्रिय तेजःस्वरूप या ज्योतिर्मय है। इसी प्रकार रसनेन्द्रिय का उपादान कारण जल और स्पर्शनेन्द्रिय का पवन है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ.12 [252])। इस प्रकार पंचभूतों में चैतन्य उत्पन्न करने का गुण न होने से, उनके संयोग से चैतन्य उत्पन्न नहीं हो सकता।
___पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है तो मृत शरीर के रहते भी वह (शरीर) मर गया, ऐसा व्यवहार कैसे होगा। इस शंका के प्रति उत्तर में भूतवादी (पांच अथवा चारभूतवादी) कहते हैं कि शरीर रूप में परिणत पंचभूतों में चैतन्य शक्ति प्रकट होने पर पांच भूतों से किसी एक का या दो अथवा दोनों (भूतों) के विनष्ट (जैसे-वायुभूत वायु में मिल जाता है आदि) होने पर शरीर का नाश हो जाता है इसलिए वह मर गया, ऐसा व्यवहृत होता है। शीलांक के अनुसार यह युक्ति सही नहीं है, क्योंकि मृत शरीर में भी पांचों महाभूत विद्यमान रहते हैं, फिर भी चैतन्य शक्ति नहीं रहती। इससे यह प्रमाणित होता है कि
चैतन्य शक्तिमान आत्मा पंचभौतिक शरीर से भिन्न है तथा वह शाश्वत है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 12-13 [253])।
इस प्रकार शरीर परिणत पंचभूतों का विनाश होने पर शरीर का भी विनाश हो जाता है। जो जीव है, वही शरीर है। न पुण्य-पाप है और न ही परलोक। इस सिद्धान्त को मानने पर निम्न समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं
1. केवलज्ञान मुक्ति या सिद्धि को प्राप्त करके तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि रूप किया जाने वाला उत्कृष्ट पुरुषार्थ, संयम और साधना निष्फल होगी।
2. व्यक्ति को दया, दान, सेवा, परोपकार, लोक-कल्याण आदि पुण्यजनक शुभकर्मों का फल नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके सिद्धान्त के अनुसार सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक, कर्मफल के सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म सिद्धान्त भी नहीं बताया जा सकता। वस्तुतः जैन मान्यतानुसार कर्मवाद और आत्मवाद का सीधा सम्बन्ध है। व्यक्ति के साथ (आत्मा के साथ) कर्मों का सम्बन्ध भवान्तर