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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
वायुपुराण (3री ई. शताब्दी) के अनुसार जो सबको व्याप्त करता है, ग्रहण करता है, इस लोक के विषयों को भोगता है तथा इसका सर्वदा सद्भाव है, इसलिए यह आत्मा कहलाता है (वायुपुराण, पूर्वार्ध, 75.32 [257])। शंकराचार्य (8वीं ई. शताब्दी) ने कठोपनिषद् भाष्य में लिंग पुराण के एक श्लोक को उद्धृत किया है, जो उक्त बात को ही दोहराता है (लिंगपुराण, 1.70.96 [258])। हलायुधकोशकार (10वीं ई. शताब्दी) ने जाग्रतादि सभी अवस्थाओं में व्याप्त होने वाले को आत्मा कहा है (हलायुधकोश, पृ. 149 [259])।
___ आत्मा शब्द जीव के सन्दर्भ में भी प्रयुक्त हुआ है अतः जीव की कुछ परिभाषाएं देना यहां उपयुक्त होगा-भगवती के अनुसार जो जीवत्व और आयुष्य कर्म का भोग करता है, वह जीव है (भगवती, 2.1.13 [260])। जीवत्व का अर्थ है उपयोग-ज्ञान और दर्शन सहित होना। आयुष्य कर्म के अनुभव का अर्थ है निश्चित जीवन अवधि का उपभोग करना।
आचार्य कुन्दकुन्द (1-2 शती) पंचास्तिकाय में जीव को परिभाषित करते हुए कहते हैं-जो सब जानता और देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुःख से डरता है, हित-अहित को करता है और उनका फल भोगता है, वह जीव है (पंचास्तिकाय, 122 [261])। न्यायसूत्रकार भी कुछ ऐसा ही कहते हैं-इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञान-इन छः गुणों से युक्त व्यक्तित्व जीव है (तुलना, न्यायसूत्र, 1.1.10 [262])।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आत्मा अथवा जीव एक ऐसा ज्ञायक स्वभावी तत्त्व है, जो द्रव्य और भाव प्राणों से जीता है ([263])। पांच इन्द्रियां, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य-ये दस प्राण हैं और ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य-ये चार भाव प्राण हैं। इन दोनों प्रकार के प्राणों से जो जीवित रहता है, जो जीता था, जो जीता है और जो जीएगा, वह जीव है।
___2. जीव के पर्यायवाची शब्द जैन आगम एवं कोश ग्रन्थों में जीव के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं। भगवती में जीव के अनेक अभिवचनों (पयार्यवाची) का उल्लेख हुआ है (भगवती, 20.2.17 [264])। इन अभिवचनों के निर्धारण का आधार जीव के लक्षण एवं स्वरूप को लेकर है। विविध अभिवचन इस प्रकार हैं