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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
जन्तु - जो जन्म ग्रहण करता है ।
योनि - दूसरों को उत्पन्न करने वाला ।
स्वयम्भू - स्वयं (अपने कर्मों के फलस्वरूप ) होने वाला ।
सशरीरी - शरीरयुक्त होने के कारण ।
नायक - कर्मों का नेता ।
अन्तरात्मा - जो अन्तर् अर्थात् मध्यरूप आत्मा हो, शरीररूप न हो । ये सब जीव के पर्यायवाची हैं ( भगवती अभयदेववृत्ति, पत्र 776-777 [270])।
इन अभिवचनों के साथ कुछ अन्य अभिवचनों का भी उल्लेख मिलता है । षट्खंडागम की धवला टीका के कर्ता वीरसेन ( 9वीं ई. शताब्दी) के अनुसार जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गल है, वेद है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सत्ता है, जन्तु है, मानी है, मायावी है, योगसहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अंतरात्मा है ( षट्खण्डागम - धवलाटीका, 1.1.1-2, गाथा 81-82 [271])। तथा महापुराण में जिनसेन ( 8वीं ई. शताब्दी) ने जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी आदि जीव के पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया है ( महापुराण, 24.103 [272])। जीव और ब्रह्म
यद्यपि जैन परम्परा में जीव के पर्याय अर्थ में इन विभिन्न नामों का उल्लेख मिलता है, फिर भी यहाँ आत्मा अथवा जीव- ये दो नाम ही प्रमुख तथा प्रचलन में हैं । कारण यही कि अन्य भारतीय दर्शनों में भी ये दोनों नाम अधिकतर प्रयुक्त हैं। यद्यपि सांख्यदर्शन में आत्मा अर्थ में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग होता है। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि उपनिषदों में आत्मा के लिए जीव के अलावा ब्रह्म शब्द का भी प्रयोग मिलता है । किन्तु मुण्डकोपनिषद् में एक वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा जीव और ब्रह्म में अन्तर दर्शाया गया है। जीव ऐसा पक्षी है, जो फलों का स्वाद लेता है और आत्मा या ब्रह्म केवल द्रष्टा या साक्षी रूपी पक्षी के समान है । जीव और ब्रह्म-दोनों एक शरीर में अंधकार और प्रकाश की तरह रहते हैं (मुण्डकोपनिषद्, 3.1 -2 [ 273 ] ) । इस तरह जीव और ब्रह्म में व्यावहारिक दृष्टि से उपनिषदों में अन्तर किया गया है ।