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एकात्मवाद
इसके साथ ही पारमार्थिक दृष्टि से दोनों में एकीभाव दिखाया गया है। एकाकार के विषय में कहा है-प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म लक्ष्य है। अप्रमत्तता पूर्वक बाण चलाना चाहिए। जो बेधन करने वाला है, वह बाण के समान हो जाता है एवं लक्ष्य रूपी ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है। वह सर्वज्ञ और सर्वात्मा हो जाता है (I. मुण्डकोपनिषद्, 2.2.4, 3.2.7, II. प्रश्नोपनिषद्, 4.10 [274])। इन उदाहरणों से जीव और ब्रह्म में एकत्व सिद्ध होता है। ब्रह्म भाष्य के अनुसार तो जीव का तात्पर्य संसार अवस्था वाले चेतन से ही है (ब्रह्मसूत्र भाष्य, 1.5.6 [275]), मुक्त चेतन से नहीं, और आत्मा शब्द तो साधारण (दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय, ध्यान करने योग्य) है (बृहदारण्यकोपनिषद्, 2.4.5 [276])। जीव और जीवास्तिकाय
जीव और जीवास्तिकाय के सन्दर्भ में जैन आगमों में जीव और ब्रह्म के समान ही विवेचन मिलता है। सामान्यतः जीव और जीवास्तिकाय को एकार्थक माना जाता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में सर्वत्र ऐसी ही मान्यता है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के आगम भगवती के दूसरे शतक में एकमात्र ऐसा सन्दर्भ मिलता है जहां जीव और जीवास्तिकाय को भिन्न माना गया है (भगवती, 2.10.134-135 [277]) तथा दूसरी तरफ भगवती के ही बीसवें शतक में जीव और जीवास्तिकाय को एक माना है (भगवती, 20.2.17 [278])। यह विचारणीय है।
जैन आगमानुसार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-ये पाँच अस्तिकाय हैं (भगवती, 2.10.124 [279])। जीव अनन्त हैं। उन अनन्त जीवों के समुदाय का नाम जीवास्तिकाय है (भगवती, 2.10.135 [280])। एक जीव जीवास्तिकाय नहीं कहलाता तथा एक से कम जीव वाले जीव-समुदाय को जीवास्तिकाय नहीं कहा जाता। सभी जीवों का समुदाय जीवास्तिकाय है।
जीव, जीवास्तिकाय का एक देश है (भगवतीवृत्ति, 2.10.135 [281])। प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है, जबकि जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त बतलाए गए हैं। यह अनन्त जीवों की अपेक्षा से है अर्थात् जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं तथा प्रत्येक जीव जीवास्तिकाय का एक प्रदेश माना गया है। अतः प्रदेश की दृष्टि से जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है। किन्तु जब जीव को