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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
की अपेक्षा आज मिलने वाला कबूतर अच्छा है। संदिग्ध सोने की अपेक्षा निश्चित चांदी का सिक्का अच्छा है (कामसूत्र, 1.2.29-30 [247])।
अर्थशास्त्र में लोकायत मत को सांख्य और योग के साथ अन्वीक्षिकी कहा है (अर्थशास्त्र, 1.1 [248])।
इस प्रकार कह सकते हैं कि भारत की लगभग प्रत्येक परम्परा में भौतिकवाद और इस तरह की मान्यताओं का हर युग में बोलबाला रहा है, जैसा कि आज भी प्रचलन में है।
7. पंचभूतवाद की जैन दृष्टि से समीक्षा जैन आगमों के आधार पर देखा जाए तो प्रत्येक मत के विवेचन में व्यापकता का दर्शन होता है। जैन दर्शन में पंचभूतों के अस्तित्व को स्वीकार किया है तथापि वहां पंचभूतवाद की निष्पक्ष समीक्षा भी प्राप्त होती है। पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है। पंचभूतों का गुण चैतन्य है और वह पंचभूतों के साथ ही विनष्ट हो जाती है। इस अयथार्थ युक्ति का निराकरण करते हुए कहा गया है कि ऐसे सिद्धान्त को मानने वाला महावीर के मत में स्वयं हिंसा करता है तथा दूसरों से करवाता है और अन्ततः मनुष्य को बेचकर या मारकर कहता है, इसमें भी दोष नहीं है। वे क्रिया-अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि, स्वर्ग-नरक का अस्तित्व है, उससे अनभिज्ञ होते हैं। इस प्रकार वे नाना कर्म समारम्भ करते हुए काम-भोग में निमग्न रहते हैं। अनार्य युक्ति-विरुद्ध सिद्धान्त प्रतिपादन करने वालों पर दूसरे लोग श्रद्धा कर उनकी पूजा करते (सूत्रकृतांग, II.1.28-29 [249])। कुछ उनके मत में दीक्षित हो जाते हैं और काम-भोगों में मूर्छित, गृद्ध, लुब्ध हो जाते हैं। वे स्वयं काम भोगों से मुक्त नहीं हो पाते और न ही अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को उनसे मुक्त कर पाते हैं। इस प्रकार घर छोड़ देने पर भी आर्यमार्ग (सिद्धि) को प्राप्त नहीं कर पाते। वे न इधर के रहते हैं, न उधर के रहते हैं, बीच में ही कामभोगों में फसे रहते हैं (सूत्रकृतांग, II.1.30-31 [250])। इस प्रकार इस सिद्धान्त को स्वीकार करना उत्कृष्ट बंधन का हेतु है।
सूत्रकृतांग के टीकाकार भी पंचभूतवाद के निरसन में अपने मत का प्रतिपादन करते हैं। उनके अनुसार