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पञ्चभूतवाद
द्रवमय जल और अस्थिमांसमय कठिनात्मक पृथ्वी है तथा इन पंचभूतों के संयोग से शरीर उत्पन्न होता है। यह भी निर्दिष्ट हुआ है (महाभारत, शांतिपर्व, 177.4 [245])।
__शांतिपर्व में ही जीवन की सत्ता के सन्दर्भ में एक संवाद मिलता है-भगवन् ! यदि वायु ही प्राणी को जीवित रखती है, वायु ही शरीर को चेष्टाशील बनाती है, वही सांस लेती है और वही बोलती भी है, तब तो इस शरीर में जीव की सत्ता स्वीकार करना व्यर्थ ही है। यदि शरीर में गर्मी अग्नि का अंश है, यदि अग्नि से ही खाये हुए अन्न का परिपाक होता है, यदि अग्नि ही सबको जीर्ण करती है, तब तो जीव की सत्ता मानना व्यर्थ ही है। जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है, तब वहाँ जीव की उपलब्धि नहीं होती। प्राणवायु ही इस प्राणी का परित्याग करती है और शरीर की गर्मी नष्ट हो जाती है। जल का सर्वथा त्याग करने से शरीर के जलीय अंश का नाश हो जाता है, श्वास रुक जाने से वायु का नाश होता है। उदर का भेदन होने से आकाश तत्त्व नष्ट होता है और भोजन बंद कर देने से शरीर के अग्नि तत्त्व का नाश हो जाता है। व्याधि, घाव तथा अन्य क्लेशों से पराक्रम नष्ट होने पर पार्थिव अंश शीर्ण हो जाता है। इन पाँच तत्वों के बीच एक भी पीड़ित होने से सारा भौतिक संघात ही पंचत्व को प्राप्त होता है। पंचभौतिक शरीर पंचत्व को प्राप्त होने पर जीव किसका अनुसरण करेगा? किन विषयों का ज्ञान करता है? क्या सुनता है और क्या बोलता है? “परलोक गमन करने पर यह गऊ मेरा उद्धार करेगी" इस उद्देश्य से गऊ दान करने पर कोई पुरुष के मरने पर वह जीव तो रहता ही नहीं तो वह गऊ फिर किसका उद्धार करेगी? गौ, गौदान करने वाला मनुष्य तथा उसको लेने वाला ब्राह्मण-ये तीनों जब यहीं मर जाते हैं, तब परलोक में उनका कैसे समागम होता है? (महाभारत, शांतिपर्व, 179,1-3, 8-12 [246])।
कामसूत्र (3-4 ई.पू.) में भी भूतवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है। उनके अनुसार शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व नहीं है, इसलिए परलोक, पुनर्जन्म और मोक्ष का प्रश्न भी नहीं है। उनके अनुसार मृत्यु ही मोक्ष है। उनके मत में धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जब परलोक ही संदिग्ध है तब संदिग्ध फल की आशा कैसे की जा सकती है। कल मिलने वाले मयूर