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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
तो अनेक प्राचीन ग्रन्थों में ये दोनों मत भिन्न-भिन्न क्यों निर्दिष्ट हुए? सामान्यतः तो तज्जीव-तच्छरीरवाद का अर्थ यही है कि जीव और शरीर ये दोनों अभिन्न हैं। बुद्ध ने अव्याकृत प्रश्न गिनाते समय उसमें तज्जीव-तच्छरीरवाद का भी उल्लेख किया है-वही जीव है और वही शरीर है। यह भी एक अन्त होने से अव्याकृत है(मज्झिमनिकाय, भिक्षुवर्ग, चुलमालुक्यसुत्त, II.122 [232])। इससे तो प्रतीत होता है कि जीव और शरीर को अभिन्न मानने का मतलब ही है भूतसमुदाय रूप शरीर को ही जीव मानना और इसे पंचभूतवाद ही कह सकते हैं।'
निष्कर्ष रूप में पंचभूतवाद तथा तज्जीव-तच्छरीरवाद में भिन्नता की दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में ऐसी सम्भावना की जा सकती है कि पंचभूतवादी आत्मा नाम के तत्त्व की वास्तविक उत्पत्ति मानते थे। हालांकि वह आत्मतत्त्व पंचभूतों में ही समाया हुआ है अर्थात् पंचभूतों से भिन्न अस्तित्व वाला नहीं है। निर्मित चेतना तत्त्व स्वरूप है, वहीं दूसरी ओर तज्जीव-तच्छरीरवाद के अनुसार जीव की कोई उत्पत्ति होती ही नहीं, किन्तु भ्रम के कारण ऐसी प्रतीति होने लगती है। इसमें चेतना, शरीर के बाहर का कोई तत्त्व है, फिर भी वह शरीर से भिन्न नहीं है और शरीर के रहने तक ही उसका अस्तित्व होता है। पंचभूतवादियों के मतानुसार शरीर रूप में परिणत पांच महाभूत ही दौड़ना, बोलना आदि क्रियाएँ करते हैं। किन्तु तज्जीव-तच्छरीरवादियों के मत में शरीर रूप में परिणत पांच महाभूतों से चैतन्य शक्ति रूप आत्मा की अभिव्यक्ति मानता है, उत्पत्ति नहीं मानता तथा उन भूतों से इस चैतन्य को अभिन्न कहता है।
___ तज्जीव-तच्छरीरवाद और नास्तिकवाद व्यावहारिकता में तो एक ही विचार वाले थे। केवल अन्तर इसके साथ यही था कि नास्तिकवाद जो आत्मा के अस्तित्व को पूर्ण रूप से नकारता जबकि तज्जीव-तच्छरीरवाद आत्म-अस्तित्व को मानता है लेकिन तार्किक रूप से दोनों के विचारों को देखें तो दोनों में समानता ही पाते हैं।
1. सुखलाल संघवी, भारतीय तत्त्वविद्या, पृ. 77. 2. Tajjivataccharīra-vāda held practically the same view with Nāstika-vāda only
with this difference that while the latter deny altogether the existence of the soul the former admit it, but the logical end of both the views would be exactly the same. A.C. Sen, Schools and Sects in Jain Literature, Vishva Bharati, Santiniketan, Calcutta, 1933, p. 100 (As printed in Prolegomena to Prakritica et Jainica, ed. by S.R. Banerjee, Calcutta, 2005).