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पञ्चभूतवाद
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सिखाया, न कि मरने के पश्चात् उसका आदर करना। कह सकते हैं कि जीवन में विश्वास करना उसके विचार का आधार था।
जिनदासगणि (7वीं ई. शताब्दी) अनुसार अजित अक्रियावादी था (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 28 [230]), क्योंकि वह आत्म-अस्तित्व के सिद्धान्त को नहीं मानता था। शीलांक (9वीं ई. शताब्दी) और सायण-माधव (18वीं ई. शताब्दी) के विचारों का अध्ययन हमें इस विश्वास की ओर ले जाता है कि अजित के सिद्धान्तों की नींव याज्ञवलक्य के इस कथन में डाली गई कि बुद्धिमत्ता का सार पांच तत्त्वों से निकलकर मृत्यु के समय लुप्त हो जाता है।'
अजित केशकम्बल के दार्शनिक विचारधारा पर विद्वानों द्वारा निकाला गया निष्कर्ष इस प्रकार है-बी.एम. बरुआ के अनुसार अजित के विचार नकारात्मक है। अजित अपने सिद्धान्त के नकारात्मक पक्ष में एपिक्युरस (Epicurus) से साम्य रखता है तथा अपने विचारों के निश्चयात्मक दृष्टिकोण में एपिक्युरियन (Epicurian) की अपेक्षा स्टोइक (Stoic) की तरफ अधिक झुका जान पड़ता है। उसका मुख्य बिन्दु है कि कुछ नहीं है, केवल मूर्त ही वास्तविक है।
राहुल सांकृत्यायन का कहना है कि हमें अजित का दर्शन उसके विरोधियों के शब्दों में मिल रहा है, जिसमें उसे बदनाम करने की कोशिश जरूर की गई होगी। अजित आदमी को महाभौतिक (= चार भूतों का बना हुआ) मानता था। परलोक और उसके लिए किये जाने वाले दान-पुण्य तथा आस्तिकवाद को वह झूठ समझता था, ये तथ्य तो स्वीकार किए जा सकते हैं किन्तु वह माता-पिता और इस लोक को भी नहीं मानता था, यह गलत है। यदि वह ऐसी शिक्षा देता, जिसके कारण वह अपने समय का लोक
1. ......The study of the views of Silanaka and Sayana Madhava leads us to think
that the foundation of Ajita's doctrine was laid in a statement of Yajñavalkya which is that the intelligible essence emerging from the five elements vanished into them at death., B.M. Barua, A History of Pre-Buddhistic Indian
Philosophy, p. 296. 2. Ajita in the negative aspect of his doctrine shows a resemblance of Epicurus,
while on the positive side of his speculations, he seems to be more a stoic than an Epicurean, his fundamental point being that nothing is real but that which is corporeal., B.M. Barua, Ibid, p. 293.