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पञ्चभूतवाद
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भिन्न सत्ता नहीं है। हम आत्मा को शरीर से अलग नहीं कर सकते। उदाहरणार्थ हम म्यान से तलवार निकालकर यह तो कह सकते हैं कि-यह तलवार है और वह म्यान है परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि यह आत्मा है और यह शरीर है। अजितकेशकम्बल और राजा प्रदेशी ने मूर्त दृष्टि से देखा कि आत्मा के बिना पदार्थ के रूप में अस्तित्व नहीं है।
अर्धमागधी आगमों में एक प्राचीनतम आगम ऋषिभाषित है, जिसकी गणना श्वेताम्बर परम्परा मान्य 32 एवं 45 आगमों में नहीं की जाती किन्तु नंदी के अनुसार ऋषिभाषित की गणना कालिक सूत्रों में की जाती है (नंदी, 5.78 [222])। इसका बीसवां “उक्कल" नामक अध्ययन में तज्जीव-तच्छरीरवाद की मान्यताओं का तार्किक प्रस्तुतीकरण करता है। वह इस प्रकार है-'पादतल से ऊपर और मस्तक के केशाग्र से नीचे तथा सम्पूर्ण शरीर की त्वचापर्यन्त जीव आत्मपर्याय को प्राप्त हो जीवन जीता है और इतना ही मात्र जीवन है। जिस प्रकार बीज के भुन जाने पर उससे पुनः जीव की उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिए जीवन इतना ही है। अर्थात् शरीर की उत्पत्ति से विनाश तक की कालावधि पर्यन्त ही जीवन है, न तो परलोक है, न सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल विपाक है। जीव का पुनर्जन्म भी नहीं होता है। पुण्य और पाप जीव का संस्पर्श नहीं करते हैं और इस तरह कल्याण और पाप निष्फल है। आगे इसी मान्यता की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि पादतल से ऊपर तथा मस्तक के केशाग्र से नीचे और शरीर की सम्पूर्ण त्वचा पर्यन्त आत्मपर्याय को प्राप्त यह जीव है, यह मरणशील है, किन्तु जीवन इतना ही नहीं है। जिस प्रकार बीज के जल जाने पर उससे पुनः उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर भी उससे पुनः उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए जीवन में पुण्य-पाप का अग्रहण होने से सुख-दुःख की संभावना का अभाव हो जाता है और पापकर्म के अभाव में शरीर के दग्ध होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है। अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता है। इस प्रकार व्यक्ति मुक्ति पा लेता है (Rsibhāsitasutra, Ch. 20, p. 39 [223])। यहाँ पर इस मत के प्रवर्तक के रूप में उत्कलाचार्य का उल्लेख है। साथ ही वहाँ पर भौतिकवाद के पांच प्रकारों-दण्डोत्कल, रज्जूत्कल, स्तेनोत्कल, देशोत्कल और सर्वोत्कल का भी उल्लेख है (Rsibhāsitasātra, Ch. 20, p. 37 [224])।