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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
(विशेषावश्यकभाष्य, 1649-50, 84 [219])। इस तथ्य से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महावीर युग में इस मत को मानने वाले लोगों का बहुत बड़ा समुदाय था। यहां भी इस मत को तज्जीव-तच्छरीरवाद ही नाम दिया गया है।
राजप्रश्नीय नामक द्वितीय उपांग में तज्जीव तच्छरीरवाद तथा उच्छेदवाद के पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों सन्दर्भो की तार्किक व्याख्या मिलती है। राजप्रश्नीय के अनुसार राजा प्रदेशी जीव और शरीर को एक मानता था। उसने अनेक बार परीक्षण कर देखा। तस्करों और अपराधियों को सन्दूक में बंदकर या उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर जीव को देखने का प्रयत्न किया कि आत्मा कहीं दिख जाये, पर आत्मा स्वभाव अरूपी होने के कारण उसे दिखाई कैसे दे सकती थी? इस स्थिति में उसे अपना मत सही जान पड़ा कि जीव और शरीर अभिन्न है। वस्तुतः इसके पीछे उसका अपना अनुभव बोल रहा था। उसके सभी तर्कों का भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीश्रमण ने विभिन्न रूपकों के माध्यम से जो निरसन किया, उससे राजा प्रदेशी को आत्मा और शरीर पृथक्-पृथक् स्वीकार करने पड़े। तज्जीव-तच्छरीरवाद के सन्दर्भ में राजप्रश्नीय का केशी-प्रदेशी आख्यान बहुत से विद्वानगण पूर्व में प्रस्तुत कर चुके हैं। तथापि तज्जीव-तच्छरीरवाद सन्दर्भ यहां विषय के अनुरूप होने तथा विषय के स्पष्टीकरण के लिए उपयुक्त जान पड़ने के कारण प्रस्तुत किया जा रहा है। वह आख्यान इस प्रकार हैकेशी-प्रदेशी आख्यान
राजा प्रदेशी चित्त सारथी के साथ केशीकुमार से इस प्रकार पूछते हैं-आप श्रमण निर्ग्रन्थों को यह सिद्धान्त स्वीकृत है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है? अथवा शरीर और जीव दोनों एक नहीं है? राजा के प्रश्न के जवाब में केशी श्रमण कहते हैं-हमारा सिद्धान्त है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न परन्तु जो जीव है वही शरीर है, ऐसी धारणा नहीं है। तब प्रदेशी राजा ने कहा-हे भगवन् यदि आपकी यह मान्यता नहीं है कि जो जीव है, वही शरीर है, तब केशीकुमार श्रमण! मेरे दादा अत्यन्त अधार्मिक थे। आपके कथनानुसार वे अवश्य ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह का अत्यन्त प्रिय था, अतः पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयंविया (श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक यावत्