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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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कि जीव है अथवा नहीं। इन्द्रभूति द्वारा व्यक्त जिज्ञासा पंचभूतवाद तथा चारभूतवादी चार्वाक से सम्बद्ध है। ये दोनों मतवाद आत्मा का सर्वथा अभाव नहीं मानते बल्कि पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि पांच अथवा चार भूत के अतिरिक्त कोई स्वतन्त्र आत्मतत्त्व नहीं मानते। वस्तुतः आत्मा के अस्तित्व को सभी भारतीय दर्शनों ने स्वीकार किया तथा वह हर युग में सभी को मान्य था। इस बात को स्पष्ट करते हुए न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने कहा कि वस्तुतः आत्मा. के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यतः विवाद ही नहीं है, यदि विवाद है तो आत्मा के विशेष स्वरूप से है। अर्थात् कोई शरीर को आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय को और कोई संघात को आत्मा समझता है। कुछ इनसे भी अलग आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं।'
अग्निभूति की शंका (जिज्ञासा) कर्म विषयक थी। पंचमतवादों में पंचभूतवादी कर्म का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते तथा नियतिवादी भी कर्म अर्थात् बल, वीर्य, पराक्रम आदि को निरर्थक मानते हैं। अतः अग्निभूति द्वारा पूछा गया प्रश्न मूलतः इन दोनों वादों से सम्बन्धित हैं।
वायुभूति द्वारा पूछा गया प्रश्न शरीर ही जीव है अथवा अन्य तज्जीवतच्छरीरवाद से सम्बद्ध है। श्रीव्यक्त की जिज्ञासा भूत (चार अथवा पांच) है या नहीं यह शंकाएं बौद्ध क्षणिकवाद से सम्बन्धित है।..
___ सुधर्मा द्वारा पूछा गया प्रश्न इस भव में जीव जैसा है, परभव में भी वैसा ही होता है या नहीं? शोध में निर्धारित मुख्य मतवादों से तो सम्बद्ध तो नहीं है किन्तु मंखली गोशाल के पोट्ट-परिहारवाद के जरूर समान लगता है।
मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास की जिज्ञासाएँ बंध मोक्ष, देव अथवा नारक है या नहीं, पुण्य, पाप व परलोक तथा निर्वाण के अस्तित्व-ये सारी जिज्ञासाएँ नियतिवाद से सम्बन्धित हैं क्योंकि नियतिवादी इन सभी का अस्तित्व तो मानते हैं किन्तु नियति के अधीन। साथ ही पंचभूतवाद या तज्जीव-तच्छरीरवाद वहां पर भी पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, परलोक, देव-नारक के अस्तित्व विषयक चर्चा है। अतएव ये शंकाएँ भी पंचभूतवाद से संबंधित हैं।
1. न्यायवार्तिक, पृ. 366, (गणधरवाद, पृ. 75-76 पर उद्धृत)।