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पञ्चभूतवाद
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पंचमहाभूतों से निष्पन्न होता है। उस भूत समवाय को पृथक्-पृथक् नाम से जानना चाहिए; यथा-पृथ्वी पहला महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है, आकाश पांचवां महाभूत। ये पंचमहाभूत अनिर्मित, अनिर्मापित, अकृत, अकृत्रिम, अकृतक, अनादि-अनिधन (अनन्त), अवन्ध्य (सकल), अपुरोहित (दूसरे द्वारा अप्रवर्तित), स्वतन्त्र और शाश्वत हैं (सूत्रकृतांग, I.1.25-26 [197])।
___ उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो कोई कामभोगों में आसक्त होता है, उसकी गति मिथ्या भाषण की ओर हो जाती है। वह कहता है-परलोक तो मैंने देखा नहीं, यह रति(आनन्द) तो चक्षु दृष्ट है-आंखों के सामने है। ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है परलोक है या नहीं? मैं लोक समुदाय के साथ रहूंगा-जन श्रद्धा के साथ होकर रहूँगा (उत्तराध्ययन, 5.5-7 [198])। यहाँ इस सिद्धान्त को जन श्रद्धा (जन सद्धि) कहा गया तथा पुनर्जन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख कर उसका खण्डन किया गया है।
इस प्रकार देखते हैं कि आगम एवं उसके व्याख्या ग्रन्थों में सर्वत्र पांच भूतों का उल्लेख हुआ है।
दीघनिकाय में सर्वप्रथम आत्मा के सन्दर्भ में चार भूतों का उल्लेख हुआ है-यह आत्मा मूर्त है, चातुर्महाभूतिक है-पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु-इन चार महाभूतों से निष्पन्न है, माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होती है। शरीर का उच्छेद होने पर विनाश हो जाता है। मृत्यु के पश्चात् कुछ नहीं बचता.... इस प्रकार कई एक पुरुष सत्त्व-आत्मा के उच्छेद, विनाश और विभव लोप का प्रज्ञापन-प्रतिपादन करते हैं (दीघनिकाय ब्रह्मजालसुत्त, पृ. 30 [199])।
बौद्ध परम्परा में बुद्ध के समकालीन छः तीर्थंकरों में पकुध कच्चायन एक हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के मत में पंचभूतवाद पकुध कच्चायन के दार्शनिक पक्ष की एक शाखा है।'
1. सूयगडो, I.1.15-16 का टिप्पण, पृ. 35.