________________
66
जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
दीघनिकाय में पकुध कच्चायन के सात काय के सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है। ये सात काय (पदार्थ) अकृत, अकृतविध, अनिर्मित, वन्ध्य, कूटस्थ तथा खंभे के समान अचल हैं। वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, आपस में कष्टदायक नहीं होते और एक-दूसरे को सुख-दुःख देने में असमर्थ हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख, दुःख तथा जीव-ये ही सात पदार्थ हैं। इनमें मारने वाला, मरने वाला, सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जनाने वाला कोई नहीं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का शिर भी काट ले तो भी वह किसी को प्राणों से विहीन नहीं करता। क्योंकि वह शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश (रिक्त स्थान) में गिरता है (दीघनिकाय-सीलक्खन्धवग्गपालि, I.2.174 [200])।
पंचमहाभूत और सातकाय-ये दोनों भिन्न पक्ष हैं। इस भेद का कारण पकुध कच्चायन की दो बिचार-शाखाएँ हो सकती हैं। इस प्रकार पकुध कच्चायन ने चार भूतों के साथ आकाश का भी अस्तित्व स्वीकार किया है।
यहां अकृत, अनिर्मित एवं अवन्ध्य शब्द पंचभूत एवं सात काय-दोनों सिद्धान्तों में प्रयुक्त हुए हैं।
आत्मषष्ठवाद पकुध कच्चायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है। आचार्य महाप्रज्ञ' ने इस मत की संभावना की है कि पकुध कच्चायन के कुछ अनुयायी केवल पंच महाभूतवादी थे। वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते थे। उसके कुछ अनुयायी पांच भूतों के साथ-साथ आत्मा को भी स्वीकार करते थे। वह स्वयं आत्मा को स्वीकार करता था।
इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य एवं कूटस्थ तो है ही साथ ही सूक्ष्म और अछेद्य भी है। पकुध कच्चायन के इस सिद्धान्त के तत्त्व उपनिषदों तथा गीता में भी प्राप्त होते हैं। उपनिषदों में आत्मा को जौ, सरसों, चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है (I. छान्दोग्योपनिषद्, 3.14.3, II. बृहदारण्यकोपनिषद्, 5.6.1, III. कठोपनिषद्, 2.8 [201])। तथा गीता में उसे अछेद्य एवं अवध्य कहा गया है (गीता, 2.23-24 [202])।
1 सूयगडो, I.1.15-16 का टिप्पण, पृ. 35.