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द्वितीय अध्याय
पंचभूतवाद
1. जैन आगमों में पंचभूतवाद
जैन आगम एवं जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भौतिकवादी जीवन की व्याख्या, समालोचना भगवान् महावीर से लेकर आज तक 2500 वर्ष की दीर्घावधि तक होती रही है । जीव और चैतन्य की चर्चा के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन विचार स्तर भूतचैतन्यवाद का है तथा उसको सर्वप्रथम स्थान भी दे सकते हैं उपनिषदों, जैन आगमों एवं बौद्ध पिटकों में इसका निर्देश पूर्व पक्ष के रूप में हुआ है।
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जैन लोग नास्तिक दर्शन से भलीभांति परिचित थे, जो कि आत्म अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे । सूत्रकृतांग में एक ऐसा सन्दर्भ मिलता है, जिसमें ऐसे व्यक्ति जो निर्ग्रन्थ के सिद्धान्तों (ग्रन्थ) का परित्याग कर व्रत-अव्रत के अन्तर को न जानते हुए गर्वित होते और कामभोगों में आसक्त रहने वाले थे (सूत्रकृतांग, 1.1.1.6 [ 185 ]), जो पांच स्थूल तत्त्व (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ) में विश्वास करते हैं, उन मतवादियों के प्रामाणिक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं ।
सूत्रकृतांग में पंचभूत (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ) सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है। वहां किन्हीं मतवादियों ने यह निरूपित किया है कि इस जगत् में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश पाँच महाभूत हैं । इनके संयोग से एक आत्मा उत्पन्न होती है, तथा इन पांच भूतों के विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जाता है (सूत्रकृतांग, 1.1.1.7-8 [ 186 ] ) । वहाँ इस मत के प्रतिपादक का नामोल्लेख नहीं मिलता, किन्तु इसी ग्रन्थ के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में इसे द्वितीय पुरुष के रूप में परिगणित कर पंचमहाभौतिक नाम दिया गया (सूत्रकृतांग, II. 1. 23 [187 ] ) । इन्हें महाभूत क्यों कहा गया है ? कारण यही कि ये पांचभूत सर्वलोकव्यापी हैं, अतः ये महाभूत हैं ( सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 18 [188])। ऐसा शीलांक (9 ई. शताब्दी) का अभिमत है ।