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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक व्यवस्था का चार वर्गों में विभाजन, बाद के भारत के जाति-व्यवस्था का आधार था। लेकिन आज के जाति शब्द को वर्ण से एकरूप नहीं कर सकते, क्योंकि उन दोनों में अन्तर है। जाति को हम जिस रूप में जानते हैं, उसकी विशेषताएं हैं-सामाजिक एकता के साथ वंशानुक्रम श्रेणी, समान व्यवसाय, धार्मिक एकता तथा दूसरी जाति के साथ कोई सामाजिक सम्बन्ध न रखना आदि।
उपरोक्त विवेचन में 600 ई. पू. की चातुर्वर्ण व्यवस्था जिसमें क्षत्रियों के साथ ब्राह्मणों की भी प्रमुखता थी किन्तु शूद्रों की निकृष्ट स्थिति थी जिसका स्वयं महावीर और बुद्ध ने विरोध किया। इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में भी मतैक्य प्राप्त नहीं होता जो विभिन्न मतों की उत्पत्ति का कारण माना जा सकता है। आश्रम व्यवस्था
जिस प्रकार वैदिक परम्परा में सामाजिक जीवन व्यवस्था के लिए चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का विधान किया गया है, उसी प्रकार जैन परम्परा में प्रारम्भ से आश्रम व्यवस्था नहीं थी। न ही यहाँ आयु के आधार पर आश्रमों के विभाजन का सिद्धान्त ही मिलता है। किन्तु उत्तराध्ययन के इस श्लोक से यह पुष्टि हो जाती है कि कुछ भिक्षुओं में गृहस्थ का संयम प्रधान होता है किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है (उत्तराध्ययन, 5.20 [43])। जैन परम्परा में आध्यात्मिक दृष्टि से संन्यास आश्रम का ही सर्वोच्च स्थान है और व्यक्ति को जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाए तभी इसे ग्रहण कर लेना चाहिए। किन्तु साथ ही यह भी कहा गया है-चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटा धारण करना, संघाटी और सिर मुंडाना-ये सब दुष्ट आचरण करने वाले साधु की रक्षा नहीं करते। भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरकगामी ही होता है (उत्तराध्ययन, 5.21-22 [44])। अतः यहाँ व्रत को ही श्रेय बताया है।
_इससे यह स्पष्ट होता है कि सुव्रती गृहस्थ व व्रत सम्पन्न भिक्षु की श्रेष्ठ गति होती है। भिक्षु की श्रेष्ठता न तो जन्मना है न वंश परिवर्तन से है, उसकी श्रेष्ठता का एकमात्र हेतु व्रत या संयम है। किसी भी अवस्था में संन्यास आश्रम को ग्रहण किया जा सकता है। यहाँ श्रमण होने से पूर्व गृहस्थाश्रम में रहना भी आवश्यक नहीं माना गया है।