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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
रिज डेविड्स के अनुसार-बौद्ध धर्म के उदय के कुछ समय बाद आश्रम का प्रसिद्ध सिद्धान्त अथवा प्रयत्न जिसके अनुसार कोई भी साधु या ऋषि नहीं बन सकता जब तक कि पहले छात्र बनकर ब्रह्मचर्य आश्रम में नहीं रहा हुआ हो और शादीशुदा गृहस्थ बनकर न रहा हो, जैसा कि ब्राह्मण नियमों में आता है।' यह कथन सही प्रतीत नहीं होता क्योंकि बौद्ध धर्म के प्रभाव अथवा उदय के कारण ही ब्रह्मचर्य फिर गृहस्थाश्रम में रहकर ही कोई साधु ऋषि बन सकता था, ऐसा कोई उल्लेख नहीं आता और न ही बौद्ध धर्म के उदय के पश्चात् आश्रम व्यवस्था हिन्दू धर्म में स्वीकृत की गई किन्तु यह व्यवस्था पूर्व में प्रचलित थी। और बौद्ध धर्म में पहली अवस्था को छोड़कर चारों अवस्थाओं को थोपने का भी कभी प्रयत्न नहीं था। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि ब्राह्मण वर्ग में इसका प्रभाव अधिक था। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि दोनों अंतिम आश्रमों की भिन्नता और संन्यास आश्रम का विकास यति सिद्धान्तों के कारण अथवा जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण हो।
इस प्रकार की आश्रम व्यवस्था के सिद्धान्त में जैन व बौद्ध धर्म के अन्तर्गत संन्यास आश्रम की ही प्रधानता देखी गई जिसके फलस्वरूप विभिन्न मतवादों का उदय होना माना जा सकता है।
पारिवारिक जीवन
_600 ई.पू. में सामान्यतः संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी तथा परिवार के सदस्यों में अच्छे सम्बन्ध थे। आज की भांति ही पिता परिवार का मुखिया होता था, जिसकी परिवार में सम्मानित स्थिति थी। पत्नी प्रायः गृहकार्य करती थी और परिवार के सदस्यों का ध्यान रखती थी। स्त्री के उजले और बुरे दोनों तरह के पक्ष जैन व बौद्ध आगमों में मिलते हैं। पारिवारिक जीवन में महावीरकालीन समाज में माता-पिता, स्वामी धर्माचार्य का यथेष्ट सम्मान किया
1. They formulated though this was some time after the rise of Buddhism-The
famous theory of Asharma, or efforts according to which no one could become either a Hermit or a wanderes without having first passed many years as a student in the Brahmin school, and lived after that the life of a married householder as regulated in the Brahmin law Books. T.W. Rhys Davids, Buddhist India, (London, 1903] 9th edn., 1970 from Delhi, p. 113.