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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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सारभूत प्रतिनिधि समझा जाता था (अर्थशास्त्र, 1.13.16, [141])। शासकीय राज्यों में सामान्यतः राजा क्षत्रिय जाति से होते थे। यद्यपि वह अगर अत्याचारी या निरंकुश भी हो तो उसे अपने 10 पारम्परिक कर्तव्यों (दसराजधम्मे) का पालन करना होता था-1. भिक्षादान (धर्मदान), 2. जीवन में नैतिक आचरण, प्रगति, 3. बलिदान, 4. सत्यवादिता, 5. दयालुता (कोमलता), 6. स्व-निषेधक, 7. क्षमा देना, 8. किसी को दर्द नहीं देना, 9. धैर्य, 10. न्याय। श्रेष्ठ राजा में इन गुणों का होना अपेक्षित था।' इनको जैन एवं बौद्ध धर्म में राजा के सद्गुणों के रूप में प्रतिपादित किया है।
औपपातिक से यह ज्ञात होता है कि चम्पा का राजा कूणिक (अजातशत्रु) एक प्रतापशाली क्षत्रिय राजा था। उसे अत्यन्त विशुद्ध, राजलक्षणों से युक्त, चिरकालीन राजवंश में प्रसूत, बहुसम्मानित, सर्वगुण सम्पन्न राज्याभिषिक्त और दयालु बताया गया है। वह सीमा का प्रतिष्ठाता, शांति और सुव्यवस्था का संस्थापक, क्षेमकारक और जनपद का पालक था, दान-मान आदि से वह लोगों को सम्मानित करता तथा धन, धान्य, सोना-चांदी, भवन, शयन, आसन, यान, वाहन, दास, दासी, गाय, भैंस, माल-खजाना, कोठार और शास्त्रागार आदि से सम्पन्न था (औपपातिक, 14 [142])। यह विवरण तत्कालीन राजतंत्रात्मक वैभव को व्यक्त करता है।
इस प्रकार छठी शताब्दी ई.पू. में राजा सम्पूर्ण शासन का प्रधान होता था। साम्राज्य की सारी शक्ति उसी में केन्द्रित रहती थी। राज्य-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था, सेना, दण्ड आदि की अन्तिम शक्ति राजा के हाथ में होती थी। फिर भी उसकी स्थिति वैधानिक राजा की नहीं थी और न ही जनता उस पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखती थी। वह अपने मंत्रियों की सलाह से ही शासन कार्यों को सम्भालता था।
राजा की मृत्यु के पश्चात् सामान्यतः युवराज राजा बनता था। ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार युवराज प्राण शक्ति एवं ऐश्वर्य से युक्त रहता था। बहत्तर कलाओं, अठारह देशी भाषाओं, संगीत, नृत्य तथा हस्तियुद्ध, अश्वयुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध, लतायुद्ध, रथयुद्ध, धनुर्वेद आदि में निपुण होता था। वह पूर्ण साहस से युक्त तथा विकाल वेला में भी विचरने की क्षमता रखने वाला होता था (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.88 [1431)।
1. Fick, Social Organization in North-East Indian in Buddha's Time (1920),
p. 100, see also, K.C. Jain, Lord Mahāvīra and His Times, p. 215.