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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
ऐसा कोई भी समय नहीं था जिस समय द्वादशांगी नहीं थी (नंदी, 126 [161])। इस प्रकार द्वादशांगी नित्य सिद्ध होती है । किन्तु नित्यता से यहां तात्पर्य उसमें प्रतिपादित तत्त्वों की नित्यता से है, शब्दात्मक नित्यता से नहीं ।
भद्रबाहु द्वितीय ( 6ठी ई. शताब्दी) तथा जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ( 7वीं ई. शताब्दी) के अनुसार “ तप, नियम एवं ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर तीर्थंकर भव्य जीवों को संबोध प्रदान करने के लिए ज्ञान कुसुम की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि-बल से उन ज्ञान कुसुमों से प्रवचन माला गूंथते हैं ।" (I. आवश्यकनिर्युक्ति, 83-84, II. विशेषावश्यकभाष्य, 1094, 1111 [162])। तीर्थंकर अर्थ रूप में गणधरों को वाचना देते हैं और शब्द रूप में सूत्रशैली में गणधर आगमों को प्रणीत (निर्माण) करते हैं (I. आवश्यकनिर्युक्ति, 86, II. विशेषावश्यकभाष्य, 1119 [163])।
इस प्रकार तीर्थंकर अर्थात्मक ग्रन्थ प्रणेता थे, किन्तु शब्दात्मक ग्रन्थ प्रणेता नहीं। यहां निश्चय दृष्टि से आगमों की अपौरुषेयता तथा व्यावहारिक दृष्टि से पौरुषेयता भी सिद्ध हो जाती है ।
भगवान् महावीर ने अर्द्धमागधी भाषा में प्रवचन दिया (I. समवायांग, 34.22, II. औपपातिक, 71 [ 164] ) । क्योंकि यह भाषा सभी आर्य-अनार्य, पशु-पक्षियों आदि की सुखद भाषाओं में परिणत हो जाती थी (I. समवायांग, 34.23, II. भगवती, 9.33.149, III. औपपातिक, 71, IV. आवश्यकनिर्युक्ति, 362/25 [165]), तथा विविध प्रकार के राग-द्वेष युक्त विकार मन वाले देव असुर भी प्रशान्त मन वाले होकर धर्म सुनते थे (समवायांग, 34.24 [166 ] ) । यह अपना परिणाम दिखाती है अर्थात् सब भाषाओं में परिणत हो जाती है । सब प्रकार
पूर्ण है और जिसके द्वारा सब कुछ जाना और समझा जा सकता है, उस वाणी को नमस्कार किया गया है ( अलंकारतिलक, 1.1 [167] ) । अर्थात् यह एक पूर्ण भाषा है । अर्द्धमागधी भाषा को उस समय की देवभाषा भी कहा गया है ( भगवती, 5.4.93 [168 ] ) । इसका प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा जाता था (प्रज्ञापना, 1.98 [169 ] ) । इस प्रकार कहा जा सकता है कि छठी शताब्दी ई.पू. में भगवान् महावीर ने उस समय की जनभाषा में अपने उपदेश दिए, जो समय-समय पर हुई वाचनाओं में अन्तिम देवर्द्धिगणी की वलभी वाचना (890 / 893 वि.नि.सं.) के रूप में हमारे सामने विद्यमान है।