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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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चतुर्थ वाचना-आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वलभी वाचना समकालीन है। "नागार्जुन ने दुर्भिक्ष के बाद श्रमण संघ को एकत्रित करके संघ को जो-जो आगम और उनके अनुयोगों के उपरांत प्रकरण ग्रन्थ याद थे, वे लिख लिए गये और विस्मृत स्थलों को पूर्वापर संबंध के अनुसार ठीक करके उसके अनुसार वाचना दी गई।" (I. योगशास्त्र टीका, 3, पृ. 206 (देवेन्द्रमुनि, जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ. 57 पर उद्धृत), II. कहावली (भद्रेश्वरसूरिकृत), 298, II. ज्योतिष्करण्डक टीका, मलयगिरिकृत) [174])। यह वाचना वल्लभी या नागार्जुनीय वाचना कहलाई।
एक ही काल में दो वाचनाएं होने का एक कारण यह हो सकता है कि किसी एक स्थान पर निकटवर्ती एवं दूरवर्ती सभी मुनियों का पहुंचना संभव न माना गया हो। जैन मुनि नियमतः पादविहारी होते हैं। वे वाहनों का प्रयोग नहीं करते, पैदल ही जाते हैं। संभव है उत्तर भारत, पश्चिमी भारत एवं पूर्व भारत के मुनि मथुरा पहुंचे हों। मध्य भारत एवं दक्षिण भारत के मुनियों के लिए मथुरा दूरवर्ती स्थान रहा हो, वलभी मथुरा की अपेक्षा मध्य एवं दक्षिण के मुनियों के निकट होने के कारण वहां दूसरा सम्मेलन आयोजित किया गया हो। ऐसा होना संभव लगता है।
पंचम वाचना-महावीर निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् ई. की पांचवीं शती लगभग 454 ई. सन् में आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और नागार्जुन की वलभी वाचना के लगभग 150 वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः वलभी में एक वाचना हुई ([175])। इस वाचना में मुख्यतः आगमों को पुस्तकारुढ़ करने का कार्य किया गया।
इस वाचना में पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय लिखे गए सिद्धान्तों के उपरान्त जो-जो ग्रन्थ प्रकरण मौजूद थे, उन सबको लिखकर सुरक्षित करने का निश्चय किया। इस श्रमण समवसरण में दोनों वाचनाओं के सिद्धान्तों का परस्पर समन्वय किया गया और जहाँ तक हो सके भेदभाव को मिटाकर एक रूप प्रदान किया गया। जो महत्त्वपूर्ण भेद थे, उन्हें पाठान्तर के रूप में टीका चूर्णियों में संगृहीत किया। कितने ही प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचना में थे, वैसे के वैसे प्रमाण माने गए।'
उक्त व्यवस्था के बाद स्कंदिल की माथुरी वाचना के अनुसार सब सिद्धान्त लिखे गए। ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि देवर्द्धिगणी ने नंदी की युगप्रधान स्थविरावली में स्कंदिल और नागार्जुन दोनों आचार्यों को वंदन करते
1. कल्याणविजयजी, वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना, पृ. 112.