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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
दृष्टिवाद का विशिष्ट ज्ञाता कोई नहीं होने से स्थूलभद्र आदि कुछ मुनियों को भद्रबाहु के पास पूर्वो के ज्ञान हेतु भेजा गया। संघ की विशेष प्रार्थना पर भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया किन्तु स्थूलभद्र 10 पूर्वो का ही अर्थ सहित अध्ययन कर सके तथा चार पूर्वो का शाब्दिक ज्ञान ही कर पाये (I. आवश्यकचूर्णि, भाग-2, पृ. 187, II. हरिभद्रकृत उपदेशपद, III. तित्थोगाली पइन्ना, 19-22, 34-36, 800-802 [170])।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पाटलिपुत्र वाचना में द्वादश अंगों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु गणधर ग्रंथित 12 अंगों में प्रथम वाचना के समय चार पूर्व न्यून 12 अंग श्रमण संघ के हाथ लगे। यद्यपि स्थूलभद्र सूत्रतः सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता थे, किन्तु चार पूर्व की वाचना दूसरों को देने का अधिकार नहीं था (आवश्यकचूर्णि, भाग-2, पृ. 187 [171])। अतएव तब से जैनसंघ में श्रुतकेवली' नहीं किन्तु दशपूर्वी हुए। दृष्टिवाद के पूर्व साहित्य को पूर्णतः सुरक्षित नहीं किया जा सका और पूर्वो का क्रमशः विलोप होना शुरू हो गया।
द्वितीय वाचना-आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर के निर्वाण के लगभग 300 वर्षों पश्चात् उड़ीसा के कुमारिल पर्वत पर सम्राट खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। उनके 'हाथीगुम्फा' अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारिल पर्वत पर जैन मुनियों का एक संघ बुलाया था (खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, 14वीं पंक्ति, श्रीराम गोयल, प्राचीन अभिलेख संग्रह, खण्ड-1, (प्राक् युगीन), पृ. 364 [172])। खारवेल ने वर्षावास में आश्रय पाने के इच्छुक अर्हतों के लिए सुखकर विश्राम स्थल के रूप में प्रयोग करने हेतु जीवदेहायिकाएँ (गुफाएँ) खुदवाई और सब दिशाओं से आने वाले तपस्वियों, ज्ञानियों, ऋषियों और संघियों का अर्हतों के विश्रामालय के पास किसी योजना के तहत स्तम्भ स्थापित किया तथा मौर्यकाल में जो अंग विस्मृत हो गये थे, उनका पुनः उद्धार कराया था। "हिमवत्त थेरावली" नामक
1. आगम युग का जैनदर्शन, पृ. 94. 2. श्रीराम गोयल, प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर,
खण्ड-1 (प्राक् गुप्त युगीन), 1982, पृ. 364. 3. जर्नल ऑफ बिहार एण्ड ओरिसा रिसर्च सोसायटी, भाग-13, पृ. 236 (देवेन्द्र मुनि, जैन आगम
साहित्य : मनन और मीमांसा, तारक गुरु ग्रन्थालय, उदयपुर, [प्रथम संस्करण, 1977], द्वितीय संस्करण, 2005, पृ. 36 पर उद्धृत)।