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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
कभी राजा की मृत्यु हो जाने पर जिस राजपुत्र को राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार मिलता। अगर वह दीक्षा ग्रहण कर लेता तो उस स्थिति में उसके कनिष्ठ भ्राता को राजा के पद पर बैठाया जाता। कभी दीक्षित राजपुत्र संयम धारण करने में अपने आपको असमर्थ पाकर दीक्षा त्यागकर वापिस लौट आता, तब उसका कनिष्ठ भाई उसे अपने आसन पर बैठा, स्वयं उसका स्थान ग्रहण करता। ज्ञाता के साकेत नगरी में कुंडरीक और पुंडरीक नामक दो भाई राजकुमार रहा करते थे। कुंडरिक ज्येष्ठ भ्राता था और पुंडरिक कनिष्ठ। कुंडरिक ने श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। लेकिन कुछ समय बादं संयम पालन में असमर्थ हो दीक्षा छोड़ वह वापिस लौट आया। यह देखकर उसका कनिष्ठ भ्राता उसे अपने पद पर बिठाकर स्वयं श्रमणधर्म में दीक्षित हो गया (ज्ञाताधर्मकथा, I.19.18, 37-38 [144])।
कभी राजा के स्वयं के पुत्र होने पर भी अपने किसी सम्बन्धी को भी राज्य पद दिया जाता था-भगवती के सोलह जनपदों, तीन सौ तिरसठ नगरों और दस मुकुटबद्ध राजाओं के स्वामी वीतिभय के राजा उद्रायण ने अपने पुत्र के होते हुए भी केशी नाम के अपने भानजे को राजपद सौंपकर महावीर के चरणों में जैन दीक्षा स्वीकार की (भगवती, 13.6.102, 110, 112, 119 [145])।
सामान्यतः राजा और राजपुत्रों के बीच मधुर सम्बन्ध होता था। किन्तु कभी-कभी उत्तराधिकार प्राप्ति के लिए महत्त्वाकांक्षी पुत्र कुचक्र रचने का प्रयास करते। विपाकश्रुत में मथुरा का नंदिवर्धन नाम का राजकुमार अपने पिता श्रीदाम की हत्या कर राजसिंहासन को हथियाना चाहता था। उसने एक नाई को रिश्वत देकर क्षौरकर्म करते हुए राजा की हत्या कर देने को कहा था। लेकिन भय के मारे नाई ने राजा को राजकुमार का सारा भेद बता दिया। तुरन्त ही राजा ने नंदिवर्धन को फांसी पर चढ़ाने का हुक्म दे दिया (विपाकश्रुत, I.6.34-35 [146)। राजा के प्रधान पुरुष/मंत्री-परिषद्
उस युग में राजा के एक मंत्री-परिषद् हुआ करती थी, जिसके सदस्य मंत्री, सचिव, अमात्य आदि नामों से सम्बोधित किये जाते थे, जो अलग-अलग कार्यों को करने के लिए नियुक्त थे। इनके ऊपर राज्य का सारा प्रशासन निर्भर करता था।
युवराज के बाद अमात्य का महत्त्वपूर्ण पद होता था। ज्ञाताधर्मकथा और निरयावलिका के अनुसार वह जनपद, नगर, राजा आदि के संबंध में हमेशा चिन्तन करता रहता था। वह व्यवहार व नीति में निपुण, निष्णात