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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
राज्य व्यवस्था
__श्रमणधर्म वैराग्यवादी धर्म रहा है। यहाँ तप-त्याग, संयम पर ही ज्यादा बल दिया गया है। यही कारण है कि जैन आगमों में चाणक्य के अर्थशास्त्र की तथा ब्राह्मण धर्मसूत्रों की भांति शासन-व्यवस्था सम्बन्धी व्यवस्थित विधिविधानों का उल्लेख नहीं मिलता। तथापि जैन आगमों और बौद्ध त्रिपिटकों से शासन व्यवस्था सम्बन्धी उल्लेखनीय जानकारी मिलती है।
भगवान महावीर के समय एक बड़ी संख्या में राजनीतिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखे गए। कबीले की जीवन पद्धति का क्रमिक ह्रास होने लगा तथा उनका स्थान संगठित राज्यों ने ले लिया। राजा की स्थिति और कार्य भी महत्त्वपूर्ण हो गये। विभिन्न तरह की सभा, संस्थाओं के निर्माण होने से, नये पदों का सृजन हुआ। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि इस काल में राज्य मुख्य रूप से शासन पद्धति की दृष्टि से दो भागों में बंटे हुए थे1. नृपतंत्र और 2. गणतंत्र। इन शासन पद्धतियों का विवेचन इस प्रकार हैराजा, राजपद एवं राजपुत्रों से सम्बन्ध
जैन आगम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) प्रथम राजा थे, जिन्होंने भारत की प्रथम राजधानी इक्ष्वाकुभूमि (अयोध्या) में राज्य किया। इसके पूर्व न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड और न दण्ड विधान का कर्ता। क्योंकि उस समय लोग सदाचार का पालन करते हुए जीवन यापन करते थे और इसी कारण दण्ड नीति की भी कोई आवश्यकता नहीं थी। लेकिन तीसरे काल (आरे) के अन्त में, जब यतिगण धर्म से भ्रष्ट हुए और कल्पवृक्षों का प्रभाव घटा तथा युगल सन्तान की उत्पत्ति होने पर सन्तान को लेकर प्रजा में वाद-विवाद होने लगा। इस प्रकार समाज में अव्यवस्था फैलने लगी तो लोग एकत्रित हो ऋषभदेव के पिता नाभि के पास पहुंचे और उनके अनुरोध पर ऋषभ का राज्याभिषेक किया गया। तब राजा ऋषभ ने पहली बार शिल्प आदि कलाओं का उपदेश दिया और दण्ड-व्यवस्था का विधान किया (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 2.63-64 [139])।
उस समय राजा प्रजा में प्रधान के रूप में सम्मान पाता था (विनयपिटक, महावग्ग, VI.35.8 [140])। वह प्रजा के कल्याण के लिए सर्वथा आवश्यक