________________
25
महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति हेतु मांस भक्षण को त्याज्य ही बताया है तथा मांस वर्जन अथवा प्राणी वध के त्याग को संयत पुरुषों का अनुधर्म बताते हैं (सूत्रकृतांग, II.6.37-41 [85])। ___इस प्रकार इस काल में मांस खाने के प्रचलन ने महावीर के मन में प्राणी मात्र के प्रति क्षमा करुणा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा साधु और श्रावकों के लिए मांस का सर्वथा वर्जन किया। शिक्षा
जैन चिंतकों के योगदान का उल्लेख किए बिना भारतीय इतिहास का सिंहावलोकन संभव नहीं है, चाहे वह क्षेत्र धर्म या दर्शन का हो, कला या शिल्प का, इतिहास या संस्कृति का अथवा भाषा और साहित्य का हो। भारतीय इतिहास के सम्पूर्ण अकादमिक क्षेत्र में जैन चिंतकों ने मानवीय विचारों के बौद्धिक व नैतिक पक्षों को मानव जाति के विकास हेतु प्रयुक्त किया है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी जैन चिंतकों का उल्लेखनीय योगदान दृष्टिगोचर होता है। सम्पूर्ण जैन आगम और जैन वाङ्मय में शिक्षा के सन्दर्भ में अनेक ऐसे प्रासंगिक एवं उल्लेखनीय सुझाव दृष्टिगत होते हैं जिन्हें जैन शिक्षा व्यवस्था का नाम दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शिक्षा के उद्देश्य
प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति का उद्देश्य था चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्माण, प्राचीन संस्कृति की रक्षा तथा सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए उदीयमान पीढ़ी का प्रशिक्षण।'
__सच्ची शिक्षा का अर्थ पुस्तकीय ज्ञान ही न होकर आत्म-विकास भी होता था। विद्या को शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों के विकास का स्रोत माना जाता था। शिक्षा उस ज्ञान का प्रतिपादक भी रही है, जिसके द्वारा वह समस्त पदार्थों को जान लेता है और चतुर्विध संसार (चार गति वाली) के जटिल मार्ग में भी रास्ता ढूंढ लेता है अर्थात् वह कहीं विनष्ट नहीं होता है। ठीक वैसे ही जैसे कि धागे में लगी हुई सुई। यह माना गया है कि ज्ञान से, 1. The object of the ancient Indian system of education was the formulation of
character, the building up of personality, the preservation of ancient culture and the training of the rising generation in the performance of the social and religious duties, A.S. Altekar, Education in Ancient India, Benaras, 1934, p. 326. (Also quoted by J.C. Jain, Life in Ancient India as Depicted in the Jain Canon and Commentaries, p. 223).