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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
22. दंडलक्षण-चक्रवर्ती के दंड का लक्षण-शास्त्र, 23. असिलक्षण-चक्रवर्ती के असि का लक्षण-शास्त्र, 24. मणिलक्षण-चक्रवर्ती के मणि का लक्षण-शास्त्र, 25. काकिणीलक्षण- चक्रवर्ती के काकिणी का लक्षण-शास्त्र, 26. सुभगाकरदुर्भाग्य को सुभाग्य करने वाली विद्या, 27. दुर्भागाकर-सुभाग्य को दुर्भाग्य करने वाली विद्या, 28. गर्भकर-गर्भाधान की विद्या, 29. मोहनकर-वाजीकरण की विद्या, 30. आथर्वणी-अथर्ववेद के मंत्र, 31. पाकशासनी- इन्द्रजाल विद्या, 32. द्रव्यहोम-उच्चाटन आदि के लिये की जाने वाली हवनक्रिया, 33. क्षत्रियविद्याधनुर्वेद, 34. चन्द्रचरित-चन्द्र संबंधी ज्योतिष शास्त्र, 35. सूर्यचरित-सूर्य संबंधी ज्योतिष शास्त्र, 36. शुक्रचरित-शुक्र संबंधी ज्योतिष शास्त्र, 37. वृहस्पतिचरित-वृहस्पति संबंधी ज्योतिष शास्त्र, 38. उल्कापात-उल्कापात संबंधी शास्त्र, 39. दिग्दाह-दिशादाह शास्त्र, 40. मृगचक्र-ग्राम, नगर के प्रवेश आदि में अरण्य पशुओं के दर्शन या शब्द-श्रवण के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र, 41. वायसपरिमंडल-कौए आदि पक्षियों की अवस्थिति और शब्द के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र, 42. पांसुवृष्टि-धूल की वृष्टि के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र, 43. केशवृष्टि-केश की वृष्टि के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र, 44. मांसवृष्टि-मांस की वृष्टि के आधार पर बताने वाला शास्त्र, 45. रुधिरवृष्टि-रक्त की वृष्टि के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र, 46. वैताली-इच्छित देश-काल में दंडे को ऊंचा उठाने वाली विद्या, 47. अर्धवैताली- वैताली की प्रतिपक्षी विद्या, इससे दंडा नीचे आ गिरता है, 48. अवस्वापिनी-निद्रा दिलाने वाली विद्या, 49. तालोद्घाटिनी-ताले को खोलने वाली विद्या, 50. श्वपाकी-मातंगी विद्या, 51. शाबरी-शबर भाषा में निबद्ध विद्या, 52. द्राविडी-तमिल भाषा में निबद्ध विद्या, 53. कालिंगी-कलिंग देश की भाषा में निबद्ध विद्या, 54. गौरी-एक मातंग विद्या, 55. गान्धारी-एक मातंग विद्या, 56. अवपतनी-नीचे गिराने वाली विद्या, 57. उत्पतनी-ऊंचा उठाने वाली विद्या, 58. जृम्भणी-उबासी लाने वाली विद्या, 59. स्तम्भनी-स्तंभित करने वाली विद्या, 60. श्लेषणी-जंघा तथा ऊरु को आसन से चिपकाने वाली विद्या, 61. आमयकरणी-रोग पैदा करने वाली विद्या, 62. विशल्यकरणी-शल्य को निकालने वाली विद्या, 63. प्रक्रामणी-भूत दूर करने वाली विद्या, 64. अन्तर्धानी-अदृश्य होने वाली विद्या (सूत्रकृतांग, II.2.18 [95])। स्थानांग एवं समवायांग में भी पापश्रुत शास्त्र अथवा विद्याओं का उल्लेख है जो उक्त प्रकारों में ही समाहित हो जाते हैं (I. स्थानांग, 9.27, II. समवायांग, 29.1 [96])।
नंदी में सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक को सम्यक्श्रुत कहा है, जैसे-आचार, सूत्रकृत आदि बारह अंग (नंदी, 4.65 [97])।