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, जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
शिक्षार्थी के लक्षण
उत्तराध्ययन में आठ स्थितियों से युक्त व्यक्ति को शिक्षाशील कहा गया है-1. जो हास्य न करे, 2. जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे, 3. जो मर्म का प्रकाशन न करे, 4. जो चरित्र से हीन न हो, 5. जिसका चरित्र दोषों से कलुषित न हो, 6. जो रस में अति लोलुप न हो, 7. जो क्रोध न करे, 8. जो सत्य में रत हो (उत्तराध्ययन, 11.4-5 [116])। शिक्षा प्राप्ति की योग्यता किसमें है? इसका भी उल्लेख मिलता है-जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो एकाग्र होता है, जो उपधान अर्थात् श्रुत अध्ययन के समय तप करता है, जो प्रिय व्यवहार करता है तथा जो प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है (उत्तराध्ययन, 11.14 [117])। इससे भी फलित होता है कि जैनागमों में शिक्षा का सम्बन्ध चारित्रिक मूल्यों से रहा है। शिक्षा प्राप्ति में बाधक तत्त्व
मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बालक में कुछ गुण आनुवांशिकता से मिलते हैं कुछ पर्यावरण से प्राप्त होते हैं। फिर भी यदि बालक को उचित वातावरण में शिक्षा प्रदान की जाये तो सम्यक् प्रकार से प्राप्त कर सकता है। शिक्षा प्राप्ति के बाधक तत्त्वों का भी उल्लेख मिलता है। मान, क्रोध, प्रमाद, रोग एवं आलस्य-इन पांच स्थानों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती है (उत्तराध्ययन, 11.3 [118])।
Debendra Chandra Dasgupta 7 37477 The Jaina System of Education में जैन शिक्षा से सम्बन्धित विविध मुद्दों-शिक्षा संस्थान, शिक्षा पद्धति, स्त्री शिक्षा, राजकुमारों की शिक्षा आदि से सम्बन्धित दस व्याख्यानों में विस्तृत सामग्री प्रस्तुत की है।' विद्या केन्द्र
सामान्यतः प्राचीन भारत में राजधानियां, पवित्र स्थान (तीर्थस्थान) और मंदिर, मठ आदि शिक्षा केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थे तथा धनाढ्य वर्ग के लोग विद्याकेन्द्र के आश्रयदाता हुआ करते थे। 1. For more detail see, Debendra Chandra Dasgupta, Jain System of Education,
Motilal Banarsidass Publishers Pvt. Ltd., Delhi, [1st edn., 1979), 2nd edn., 1999. 2. Capitals, holy places, monasteries and temples were the centres of education
in ancient India. Kings and fedual chiefs were, as a rule, patrons of learning. Various capitals of prosperous kingdoms which used to attract men of learning and thus become centres of education,......J.C. Jain, Life in Ancient India as Depicted in the Jain Canon and Commentaries, p. 229.