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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
ई. शताब्दी), आवश्यकचूर्णि (7वीं ई. शताब्दी), भगवतीवृत्ति (11वीं ई. शताब्दी), त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित ( 12वीं ई. शताब्दी) आदि ग्रन्थों से स्पष्ट होता है कि भगवान (ऋषभदेव) ने अपनी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियाँ सिखाई थीं (I. आवश्यकनिर्युक्ति, 212, II. आवश्यकचूर्णि, पृ. 156, III. भगवतीवृत्ति, 1.1.2, पृ. 5, IV. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, 1.2.963 [125])।
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दिगम्बर आचार्य जिनसेन ( 9वीं ई. शताब्दी) ने आदिपुराण में ब्राह्मी लिपि का उल्लेख किया है (आदिपुराण, 16. 104-108 [126])।
भूवलय ग्रन्थ में अठारह अंक लिपियों के नाम कुछ प्रकार भेद से मिलते हैं 1. ब्राह्मी, 2. यवनांक, 3. दोषउपरिका, 4. विराटिका (वराट), 5. सर्वजे ( खरसापिका), 6. वरप्रभा रात्रिका, 7. उच्चतारिका, 8. पुस्तिकाक्षर, 9. भोग्यवत्ता, 10. वेदनतिका, 11. निन्हतिका, 12. सरमालांक, 13. परमगणिता, 14. गन्धर्व, 15. आदर्श, 16. माहेश्वरी, 17. दामा, 18. बोलिंदी (भूवलय, 5.146-159 (समवायांग, पृ. 108 पर उद्धृत ) [ 127]) ।
इन लिपियों के नामों को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्राह्मी प्रथम या प्राचीनतम लिपि है तथा अन्य लिपियों का उसके आधार पर विकास हुआ है । हो सकता है कि शेष सतरह लिपियां ब्राह्मी लिपि का समूह हो । भगवान ऋषभ ने ब्राह्मी को लिपि सिखाई, इसलिए लिपि का नाम ब्राह्मी प्रचलित हो गया, यह बात तर्कसंगत लगती है किन्तु भगवान् ने ब्राह्मी को अठारह लिपियां सिखाई इसलिए लिपि का नाम ब्राह्मी प्रचलित हो गया ( भगवतीवृत्ति, 1.1.2, पृ. 5 [128]), यह बात उपयुक्त नहीं लगती ।
ब्राह्मी लिपि बायें से दाहिने और खरोष्ठी दाहिने से बायें लिखी जाती थी । खरोष्ठी लिपि का प्रादुर्भाव ई. पू. 5वीं शताब्दी में अरमाइक लिपि में से होना स्वीकार किया है।' रिज डेविड्स तथा गौरीशंकर ओझा के अनुसार यह लिपि उस समय भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रचलित थी और गंधार की स्थानीय लिपि समझी जाती थी । आगे चलकर खरोष्टी धीरे-धीरे लुप्त हो गई और उसका स्थान ब्राह्मी ने ले लिया, जिससे कि देवनागरी वर्णमाला का विकास हुआ । ब्युलर के अनुसार, अशोक के अधिकतर शिलालेख ब्राह्मी लिपि में ही
1. मुनि पुण्यविजयजी, भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला, पृ. 8.