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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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सम्यक् और मिथ्याश्रुत के बारे में नंदी में उल्लेख मिलता है कि यद्यपि सम्यक् और मिथ्या-इन दो कोटियों में श्रुत का विभाजन किया गया है तथापि यह व्यक्ति की दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह श्रुत उनके लिए मिथ्या अथवा सम्यक् है। यहां स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बहत्तर कलाएँ, अंग, उपांग और चार वेद मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व द्वारा परिगृहीत होने पर मिथ्याश्रुत हैं, ये ही सम्यक्दृष्टि के सम्यक्त्व द्वारा सम्यक् परिगृहीत होने पर सम्यक्श्रुत हैं (नंदी, 4.67 [98])।
निःसंदेह शास्त्र की उपकारकता या अनुपकारकता मात्र शब्द आश्रित न होकर श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है। जिस जीव की श्रद्धा सम्यक् है, उसके सामने कोई भी शास्त्र आ जाए, वह उसका उपयोग मोक्षमार्ग को प्रशस्त बनाने में ही करेगा। अतएव सब शास्त्र उसके लिए प्रामाणिक है और जिसकी दृष्टि इसके विपरीत है उसके लिए सब शास्त्र अप्रमाण है, मिथ्या है। जीव जिस शास्त्र में जिस प्रकार की श्रद्धा रखता है उसी प्रकार का परिणाम उसे प्राप्त हो जाता है। शिक्षण विधियाँ
जैसे आज शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की शिक्षण विधियाँ अध्यापन कार्य हेतु प्रयोग में लाई जाती हैं वैसे ही 600 ई.पू. में विभिन्न प्रकार की शिक्षण विधियों के उल्लेख मिलते हैं, यथा
1. अनुयोग विधि-अनुयोग का अर्थ है अध्ययन के अर्थ की प्रतिपादन पद्धति (अनुयोगद्वारहारिभद्रीयावृत्ति, पृ. 26 [99])। यह पद्धति ग्रहण-धारणा आदि से सम्पन्न शिष्यों के लिए है। अनुयोग विधि के तीन स्थान हैं-सूत्र और अर्थ के प्रतिपादन का क्रम, नियुक्ति सहित सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन और निरवशेष प्रसंग-अनुप्रसंग सहित प्रतिपादन (I. नंदी, 5.127, II. बृहत्कल्पभाष्य, 209, 213 वृत्ति [100])। इसमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय अनुयोग के माध्यम से अध्यापन कार्य होता है।
2. स्वाध्याय विधि-स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना, अथवा आत्मा का अध्ययन करना। इसके पाँच भेद प्राप्त हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा (I. आचारचूला, 1.42, II. स्थानांग, 5.220, III. उत्तराध्ययन, 30.34 IV. तत्त्वार्थसूत्र, 9.25 [101])। वाचना का अर्थ है अध्यापन, प्रच्छना का अर्थ है संदिग्ध विषयों में प्रश्न करना, परिवर्तना का अर्थ है पठित ज्ञान का पुनरावर्तन करना, अनुप्रेक्षा का अर्थ है चिन्तन करना, धर्मकथा का अर्थ है धर्मचर्चा करना।