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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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जाता था। स्थानांग के अनुसार पुत्र अपने माता-पिता को प्रातःकाल शतपाक
और सहस्त्रपाक तेल तथा सुगन्धित उबटन से अभ्यंगित कर, सुगन्ध युक्त शीत तथा गर्म जल से स्नान करवाकर, सर्वालंकारों से उन्हें विभूषित कर, अठारह प्रकार के स्थाली पाक, शुद्ध व्यंजनों से युक्त भोजन करवाकर, जीवन पर्यन्त कावर (बहंगी/तुला) में उनका परिवहन करे तो भी वह उनके उपकारों से उऋण नहीं हो सकता (स्थानांग, 3.87 [50])। ___उस युग में पिता को ईश्वरतुल्य माना जाता था। प्रातःकाल पुत्र अपने पिता का पाद वंदन करने के लिए जाते थे (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.47 [51])। राजगृह का धन सार्थवाह जब जंगल में अपनी पुत्री की मृत्यु के बाद पुत्रों की रक्षा के लिए मांस
और रक्त प्रदान करने को तैयार हो जाता है तब इसके ज्येष्ठ पुत्र ने निवेदन किया-“तात! तुम हमारे पिता, गुरुजन तथा देवतुल्य हो, हमारे संरक्षक हो, अतः हम तुम्हें कैसे मारें? कैसे तुम्हारे मांस और शोणित का आहार करें? इसलिए तात! तुम मुझे मारो और मेरे मांस शोणित का आहार करो।" पांचों पुत्र पिता से इसी प्रकार निवेदन करते हैं (ज्ञाताधर्मकथा, I.18.51-53 [52])।
माता अपने पुत्रों से बहुत स्नेह वात्सल्य रखती थी। जब राजकुमार मेघ भगवान महावीर का उपदेश सुनकर साधु जीवन को स्वीकारने की बात अपनी मां से कहता है तो उसकी माता अचेतन हो जाती है और काष्ठ लकड़ी की भांति गिर पड़ती है। तब सम्बन्धियों द्वारा उस पर पानी छिड़का गया, पंखे से हवा देकर और शांत किया गया। उसकी आंखों में आंसू भर आये और बहुत ही करुणा भरे स्वर में अपने पुत्र को संसार के विषयभोगों का त्याग न करने के लिए बार-बार अनुरोध करने लगी (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.104-106 [53])।
मातृभक्ति के भी कुछ उदाहरण उस युग में दृष्टिगत होते हैं। राजा पुष्यनंदी अपनी माता का अत्यन्त भक्त था। वह उसके चरणों की वंदना करता, शतपाक सहस्रपाक तेल की मालिश करता, पैर दबाता, उबटन मलता, तथा विपुल अशन-पान से उसे भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करता (विपाकश्रुत, I.9.50 [54])।
कुछ ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं, जहां परिवार के एक सदस्य और दूसरे सदस्य के मध्य अच्छे सम्बन्ध नहीं थे। एक बहू अपनी सास को मारने का प्रयत्न करती है। एक बार चार बहुओं ने अपनी सास को घर से बाहर निकाल