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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
लोग चांडालों से घृणा करते थे (उत्तराध्ययन, 13.18-19 [40] ) । यद्यपि भगवान् महावीर और बुद्ध-दोनों ने इनकी दशा सुधारने का प्रयत्न किया लेकिन वर्ण और जाति सम्बन्धी प्रतिबंध दूर नहीं किये जा सके ।
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सामाजिक व्यवस्था का आधार गुणवत्ता एवं व्यवसाय था, जैसा कि जैन ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है। इस बात को गीताकार भी स्वीकार करते हैं । इस सम्बन्ध में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि चार वर्णों की उत्पत्ति (निर्माण) और विभाग कार्य और गुणों के आधार पर है (गीता, 4.13 [41] ) ।
चतुर्वर्ण के बारे में जैसा विवेचन और विचार जैन ग्रन्थों और गीता में मिलता है, वैसी ही अवधारणा बौद्ध ग्रन्थों में भी आई है। वहां कहा गया है कि समाज में ऊँच-नीच का जो भेद मिलता है, उसका आधार व्यवसाय था, जाति नहीं।' बुद्धघोष के अनुसार कोई भी व्यक्ति मात्र गोत्र अथवा धन से श्रेष्ठ नहीं । उसकी श्रेष्ठता तो उसके उत्तम कर्म, विद्या, धर्म और शील से है (विसुद्धिमग्गो, [42])। लेकिन वंश और गौर वर्ण से क्षत्रिय, माता तथा पिता दोनों तरफ से सातों पीढ़ियों तक उच्च मानते थे ।' जीवन की वास्तविकता के साथ एकता बनाये रखने के लिए संभवतः इस तरह का विभाजन हुआ हो ।
अतः कहा जा सकता है कि सभी मनुष्य समान हैं और ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से उसकी उत्पत्ति बताकर शारीरिक अंगों की उत्तमता या निकृष्टता के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का विधान नहीं किया जा सकता । शारीरिक विभिन्नता का आधार तो मात्र स्थावर, पशु-पक्षियों के विषय में ही हो सकता है, मनुष्यों के सम्बन्ध में नहीं । जन्म के आधार पर जाति का निश्चय नहीं किया जा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म के आधार पर ही चातुर्वर्ण-व्यवस्था का निर्णय करना उचित है
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1. The same views of the Jaina texts and of the Gītā on the conception of caturvarna are also expressed by the Buddhist works in which it is revealed that the social grades were based on occupation and there was no caste bar, put in one's way to adopt any profession for earning his livelihood according to his qualification and to raise himself up to a higher social rank. J.C. Sikdar, Studies in the Bhagwati Sutra, Muzaffarpur, Bihar, 1964, p. 149.
2. But the purity of Birth and fair complexion, maintained through seven generations from both sides of the father and the mother respectively, were considered as criteria of higher caste by the kṣatriyas who were "fair in colour, fine in presence, stately to behold". J. C. Sikdar, Ibid, p. 149.