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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
भगवती में चातुर्वर्ण (भगवती, 15.1.146 [23])। शब्द का उल्लेख हुआ है। किन्तु उनका नाम सहित वर्ण-व्यवस्था के विशेष सन्दर्भ में उल्लेख नहीं है। वहाँ महावीर पर गोशालक द्वारा फेंकी तेजोलेश्या से पित्त ज्वर से ग्रसित होने पर चारों वर्गों के लोग मेंडिकग्राम में आपस में चर्चा करते हैं कि मंखलिपुत्र के तप के तेज से महावीर छः महीने में काल कर जायेंगे (भगवती, 15.1.146 [24]), उस सन्दर्भ में चार वर्ण शब्द का उल्लेख है। अतः कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में चार वर्णों का अस्तित्व था।
उत्तराध्ययन में वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में कर्म को प्रधानता दी गई है न कि बाह्य आडम्बरों को (I. उत्तराध्ययन, 25.29-31, II. विपाकश्रुत, I.5.14 [25])। इस प्रकार का उल्लेख अभिधान राजेन्द्र कोश में भी मिलता है (अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड-4, पृ. 1421 [26])। फिर भी जैन ग्रन्थों में क्षत्रियों के प्रभुत्व का वर्णन मिलता है। 6वीं शताब्दी ई.पू. में राजनीति तथा आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में क्षत्रिय किसी वर्ण से पीछे नहीं थे। कुछ ऐसे निश्चित कारण थे, जिनसे क्षत्रियों में उच्च भावना उत्पन्न हो गई। उन्हें राज्य करने का सबसे बड़ा अधिकार मिला हुआ था, जिसके लिए अन्य दावा नहीं कर सकते थे। राज्य का मुखिया लोगों में सर्वश्रेष्ठ जाना जाता था। क्षत्रिय 72 कलाओं का अध्ययन करते और युद्ध विद्या में कुशलता प्राप्त करते।
जैन ग्रन्थों में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को श्रेष्ठता प्रदान की गई। जैसा कि कल्पसूत्र में उल्लेख आता है कि महावीर का देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ से त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ में प्रतिष्ठित किया गया (कल्पसूत्र, 24-25, सिवाना प्रकाशन, [27])। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय क्षत्रिय श्रेष्ठ वर्ग था। किन्तु यह मानना भी अनुचित होगा कि समाज में ब्राह्मणों की प्रमुखता नहीं थी। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भगवान महावीर को जैन आगमों में माहण अथवा महामाहण (I. सूत्रकृतांग I.9.1, II. उपासकदशा, 7.10 [28]) आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है।
उत्तराध्ययन में सच्चे ब्राह्मण के लक्षण बताते हुए कहा गया है जो लोक में पूजित है, अनासक्त है, शोकरहित है, राग-द्वेष और भय से रहित है, जो मन, वचन, काय से अहिंसक है, सत्य, अचौर्य तथा ब्रह्म से युक्त, अलोलुप, निष्कामजीवी, गृहत्यागी अकिंचन है तथा बाह्य कर्मकाण्डों से दूर है, वह सच्चा ब्राह्मण है (उत्तराध्ययन, 25.19-28 [29])।
उस समय ब्राह्मण वर्ग समाज का आध्यात्मिक नेता था। ये लोग शील, सदाचार तथा तपस्या को ही अपना सर्वस्व मानते थे। किन्तु समय के साथ समाज के इस आध्यात्मिक वर्ग के पास भी सम्पत्ति का अधिवास होने लगा।