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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
ऋद्धि प्राप्त आर्य में अरहंत बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, चारण और विद्याधर को गिना गया है। ऋद्धि अप्राप्त अनार्य 25 1⁄2 क्षेत्रार्य के बाद जात्यार्य
छः प्रकारों का उल्लेख स्थानांग में भी आया है ( स्थानांग, 6.34-35 [18] ) । कल्पसूत्र 2.25 में ऐसा उल्लेख आता है कि अरहंत, चक्रवर्ती और बलदेव अन्त, पन्त, तुच्छ, दरिद्र, कृपण, भिक्षाक ( भीख मांगने वाले) और ब्राह्मण कुलों में उत्पन्न न होकर उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय इक्ष्वाकु, क्षत्रिय हरिवंश आदि विशुद्ध कुलों में ही उत्पन्न होते हैं । उग्र, भोज, राजन्य, इक्ष्वाकु, हरिवंश, एसिअ (गोष्ठ), वैश्य, गंडक ( घोषणा करने वाले), कोहाग ( बढ़ई), ग्राम रक्षकुल और बोक्कसालिय (तन्नुवाय) आदि के घर से भिक्षा ग्रहण करने का विधान है । '
आर्यकर्म करने वाले कर्मार्य होते हैं तथा शिल्प कारीगरी करने वाले शिल्पार्य । इन दोनों का उल्लेख भी अनुयोगद्वार में है ( अनुयोगद्वार, 8.359-60 [19])।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (3 ईस्वी शताब्दी) में जात्यार्य में इक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ठ, ज्ञात, कुरु, बेंबुनाल, उग्र, भोग, राजन्य (तत्त्वार्थाधिगमसभाष्य, 3.15 का भाष्य [20]) की गणना की गई है जबकि कुलार्य में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 3.15 का भाष्य [21] ) ।
इस प्रकार विभिन्न जातियों के उल्लेख छठी ई. पू. शताब्दी में मिलता है । संभवतया यही कारण रहा होगा कि विभिन्न तरह के मतवादों का उस समय में उदय हुआ ।
वर्ण-व्यवस्था
निर्ग्रन्थ परम्परा में साधना का इच्छुक व्यक्ति साधना मार्ग में धर्म के किसी भी रूप को अपना सकता है, वह अगार हो अथवा अनगार, उसमें उच्च अथवा नीच का कोई विभेद नहीं है । यहाँ वेद की उस उक्ति को अस्वीकार किया गया है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रियों की बाहु से, वैश्यों की जांघ से तथा शुद्रों की पैर से होती है (ऋग्वेद, 10.90.12, मनुस्मृति, 1.31, 10.4 [22])। जन्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्रधान वर्ण-व्यवस्था जैन आगम अस्वीकार करते हैं किन्तु कर्म के आधार पर उसे स्वीकृत किया गया है।
1. जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1965, पृ. 222, टिप्पण सं. 1.