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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
3. महावीरकालीन समाज-व्यवस्था
कोई भी धर्म अपने समय के समाज और संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यद्यपि यहां महावीरकालीन 6वीं शताब्दी ई. पू. के समाज और सामाजिक स्थिति के बारे में बताना है तथापि महावीरकालीन समाज और संस्कृति के अध्ययन-विवेचन से महावीर के काल में जैन धर्म की तथा उस युग के अन्य मत-मतान्तरों की स्थिति का भी स्वतः अंकन हो सकेगा ।
छठी शताब्दी ई.पू. का युग अनेक सामाजिक परिवर्तनों के कारण महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस युग के धर्मसुधारकों ने जन्म के आधार पर जाति प्रथा का विरोध किया और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया । यद्यपि उस समय के भारतीय समाज पर श्रमण परम्परा के साथ ही ब्राह्मण परम्परा ICT भी प्रभाव था, जिसके कारण यज्ञ, हवन आदि अनुष्ठान होते थे, जिसमें पशुबलि के साथ नरबलि तक होती थी । जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण इस युग में संन्यास आश्रम, वानप्रस्थ से बिल्कुल अलग हो गया। समाज संयुक्त परिवार पर आधारित था, सम्पत्ति के अधिकारों का विकास शुरू हुआ । नारीयों के अच्छे और बुरे दोनों तरह के व्यक्तित्व इस युग में मिलते हैं। अहिंसा सिद्धान्त के प्रसार के कारण शाकाहारी भोजन का प्रचलन शुरू हुआ ।
सामाजिक संगठन
600 ई.पू. में सामाजिक संगठन, वर्ण, जाति, गोत्र, कुल, वंश के आधार पर कई भागों में विभक्त था । जैन आगम ग्रन्थों में अनेक वर्णों, जातियों और गोत्रों का उल्लेख हुआ है, जिसका विवरण इस प्रकार है
जाति
प्रज्ञापना में दो प्रकार की मनुष्य जातियों का उल्लेख मिलता है, जो पन्द्रह कर्मभूमिक में अर्थात् पांच भरत क्षेत्रों में, पांच ऐरावत क्षेत्रों में और पांच महाविदेह क्षेत्रों में होती है ( प्रज्ञापना, 1.88 [ 12 ] ) । वह थी पहली आर्य तथा दूसरी म्लेच्छ (अनार्य ) ( प्रज्ञापना, 1.88 [13])।
प्राचीनकाल में आर्य और अनार्य- ये दोनों शब्द वर्ग विशेष के वाचक थे । महावीरयुग में इनका लाक्षणिक प्रयोग होने लगा। आर्य अर्थात् श्रेष्ठ और अनार्य अर्थात् अश्रेष्ठ । जो अहिंसा धर्म को नहीं जानता है, वह अनार्य है। इसके विपरीत जो अहिंसा धर्म को जानता है, वह आर्य है ( आचारांगसूत्र, I.4.2.21 का भाष्य, पृ. 218 [14] ) । सामान्यतः आर्य शब्द का अर्थ हेय धर्मों से जो दूर है, पाप से दूर है तथा उपादेय धर्म सत्य, अहिंसा आदि के निकट