Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : २५
चार:
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स्थानकवासी जैनों का अखिल भारतीय स्तर पर अजमेर में एक मुनि-सम्मेलन हुआ. सम्मेलन में एकीकरण की दृष्टि से युगपुरुष आचार्य श्रीजवाहरलालजी म. ने उस युग में रहे सन्तों की मनःस्थिति को समझा. और पहले गणों में सम्प्रदायों का केन्द्रीयकरण किया जाय—ऐसा मूल्यवान सुझाव प्रस्तुत किया. उनके विचारों को समर्थन मिला. राजस्थान की छः सम्प्रदायों ने मिलकर निश्चय किया : 'छः सम्प्रदायों का एक गण बनना चाहिये. और उसका फिर एक आचार्य भी.' सबने मिलकर अपना विश्वास प्रकट करते हुए कहा : 'स्वामीजी म. का हृदय पितृहृदय है अतः छः सम्प्रदायों के आप ही आचार्य बनाये जायें.' स्वामीजी म० का यह ध्रुव विश्वास था कि शासन करनेवाला कोमल हृदय से काम ले तो व्यवस्था बिगड़ती है. कठोरता न बरती जाय तो अनुशासन स्थापित नहीं होता. अतः मुनि-पद ही मेरा सलौना पद है. और फिर आचार्य-पद स्वीकार करने से मेरी एकान्त-साधना में विक्षेप भी उपस्थित हो सकता है. अतः स्वामी जी म० का निर्णय था : 'मैं आचार्य-पद ग्रहण करना नहीं चाहता. मैं साधक ही रहना चाहता हूँ, शासक नहीं. घटना १६६६. अजमेर, (राजस्थान)
पांच:
राजस्थान के स्थानकवासी जैनमुनि सम्प्रदायों के विभाजन को जितना महत्त्व देते रहे हैं, संगठन को भी उससे कम नहीं. इसलिये लीक-लीक चलने को वे सदैव गलत मानते रहे हैं. एक समय ऐसा था जब वे अलग-अलग बॅटे. अपने नैतिक विचारों के विश्वासों के अनुसार उनका प्रचार करते रहे. आगे आनेवाली पीढ़ी ने सोचा : 'हमारे बड़ों ने विभाजित होना उचित माना था. हम संगठित होने में जैनधर्म का अभ्युदय मानते हैं. विकेन्द्रित होने से नैतिक प्रचार की शक्ति विभाजित हो जाती है. हम जो 'धर्माभ्युदय' को व्यापक बनाने का लक्ष्य लेकर चले हैं-इससे बाधा उत्पन्न होती है. तब क्यों न शक्ति का केन्द्रीकरण किया जाय ? यह आज के युग की माँग है. इस शुभ संकल्प से उत्प्रेरित होकर पाली (राजस्थान) में छः सम्प्रदायोंका एक मुनि सम्मेलन आयोजित किया गया. छहों सम्प्रदायों के मुनिजन एकत्रित हुए. सबने आचारगत हार्द पर चर्चा की. संगठन सूचक नियम बनाये. स्वामीजी को उन्होंने अपने सम्प्रदाय का प्रवर्तक-पद प्रदान किया. आचार्य की नियुक्ति का परिपाक काल न आया जान दोबारा बृहत् सम्मेलन में इस बृहत् कार्य को करने का निश्चय किया. घटनाः सं० १९६०, पाली.
छ:
फल तो भावारे लारे है. 'यस्मात् क्रिया प्रतिफलंति न भावशून्याः' फल तो भावों के साथ है. फल, मात्र साधुओं को देने में नहीं है. हम लोग तप करते हैं तो उस दिन का भी भोजनांश अभावग्रस्तों तक पहुँचना चाहिये. सदयतावश दिया गया सहयोग अभाव का नहीं, साधन-सम्पन्नता का निमित्त बनता है. इसे परिग्रह का प्रायश्चित्त भी कहा जा सकता है. इस प्रकार उन्होंने एक समय विश्वशांति की भावना का परिचय जनता को उद्बोधित करते हुए तो दिया ही था, साथ ही एक अधोवस्त्र, एक उत्तरीय, एक बारदाने का आसन और अन्य अनिवार्य उपकरणों के अतिरिक्त दुष्काल, सुकाल में परिणत हो जाय तब तक के लिये सबका परित्याग कर दिया था. एक बार राजस्थान में भी दुष्काल पड़ा था. वह समय, बंगाल जितना कठिन-कठोर तो नहीं था परन्तु उस समय भी उन्होंने अपने शिष्यों को आदेश दिया था कि मारवाड़ में सुकाल की स्थिति पुनः स्थापित न हो जाय तब तक मेरे लिए घृत, दुग्ध-दधि, नवनीत आदि कोई भी बहुमूल्य खाद्य
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