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दूसरे व्रत के अतिचार
सहसाभ्याख्यान आदि जो जानबूझ कर किया जावे तो भंग ही है, किन्तु अजानपन से किया जावे तो अतिचार हैं।
अपनी स्त्री का मंत्र याने विश्वास रख कर कही हुई गुप्तबातसो दूसरे को कहना वह स्वदारमंत्रभेद । दार शब्द मित्रादिक का उपलक्षण है यह बात तो जैसी सुनी हो, वैसी ही बोलते सत्य होने से यहां अतिचार नहीं मानी जाती, तथापि गुप्तबात के प्रकाश से लज्जादिक होने के कारण स्त्री आदि आत्मघात करे, ऐसा संभव होने से परमार्थं से वह असत्य है । कहा भी है किः- सच्चं पि तं न सच्चं जं परपीडाकरं वयणं ।
जो परपीड़ाकारक वचन हो, वह सत्य होते भी सत्य नहीं मानना चाहिये। अतः कुछ भंग होने से और कुछ भंग न होने से अतिचार पन समझ लेना चाहिये।
मृषा याने असत्य-उसका उपदेश सो मृबोपदेश अर्थात् यह ऐसा व इस तरह बोल आदि असत्य बोलने की शिक्षा देना सो. यहां व्रत रखने में निरपेक्षता से अनजाने दूसरों को मृमोपदेश देते भी अतिचार पन समझ लेना चाहिये ।
कूट लेख याने असत् अर्थसूचक अक्षर लिखना यहां भी मुग्ध बुद्धि होकर ऐसा विचार करे कि- मैंने तो मृपावाद ही त्याग किया है व यह तो लेख करना है इस प्रकार यहां व्रत की अपेक्षा वाला रहने से यह अतिचार गिना जाता है, अथवा अन्य रीति से अनाभोगादि कारण से अतिचारपन जानो। ..
इस प्रकार अतिचार सहित दूसरा अणुव्रत कहा अब स्थूल अदत्तादान विरमण नामक तीसरा व्रत कहते हैं ।