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अध्याय दूसरा । पद्मनंदिपंचविंशतिका संस्कृत ग्रंथके अंतिम पत्रे ९९ की लिपिप्रशस्तिमें है। यह ग्रंथ बहुत शुद्ध है अन्वयके नं० शब्दोंपर दिये हैं व कठिन शब्दोंके अर्थ भी लिख दिये हैं। परन्तु शुरूके ३० पत्रे नहीं मिलते हैं । सेठ लालचंद कहानदास द्वारा देखनेको मिल सस्ते हैं । ग्रंथ दर्शनीय है। वह प्रामाणिक लेख यह है:
" सं० १५६८ वर्षे फागुण मासे शुक्लपक्षे १० दिन गुरौ श्रीगिरिपुरे श्रीआदिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ० श्रीसकलकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीभुवनकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ०. श्रीज्ञानभूषणदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीविजयकीर्तिदेवा. स्तत् भगिनि आर्यिका श्रीदेवश्री तस्यै पद्मनंदिपंचविंशतिका श्रीसंघेन लिखाप्य दत्ता।”
इस लेखसे यह भी पता लगता है कि श्रीविजयकीर्ति भट्टारककी बहन देवश्री आर्थिका थीं व संस्कृत पद्मनंदिको समझ सक्ती थीं। उन्होंको यह ग्रंथ संबने भेटमें दिया था।
यहांपर पाठकों का यह अवश्य भ्रम होगा कि जो नाम इस ईडरके भट्टारकोंकी नामावली में हैं वे सर्व दिगम्बर नग्न मुनि थे या आजकलके ऐसे वस्त्रधारी भट्टारक थे ? जिसके समाधानमें पाठकोंको बताया जाता है कि सन् १२९५ ई० के पहिले सर्व ही मुनि या भट्टारक नग्न होते थे। इस सन्में आलमशाह अलाउद्दीन बादशाह देहली के थे । इनको किसी धर्म में आस्था नहीं थी। इनकी सभामें राघो और चेतन दो ब्राह्मग भी थे जो कि नास्तिक मतके पक्षपाती नत्र मादी तथा विद्वान् थे । ये वादशाहके मनको और भी धर्मशून्य करते रहते थे। एक दिन उन्होंने बादशाहको बहकाया कि
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