Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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(५६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
विशेष ज्ञातव्य-१-स्नेहका परिमाण न लिखा हो तो १ सेर स्नेह लेना चाहिये और उसमें उपरोक्त
परिभाषा के अनुसार क्वाथ, जलादि डालना चाहिये । २--उपरोक्त परिभाषाएं केवल उस स्थान के लिये हैं जहां द्रव्यों का परिमाण न लिखा हो, जहां
परिमाण लिखा हो वहां लेखानुसार ही सब पदार्थ लेने चाहियें चाहे परिभाषा इससे सहमत
हो या विरुद्ध । ३-यदि गोमूत्रादि क्षारयुक्त पदार्थों के साथ स्नेह पाक करना हो तो बहुत सावधानी रखनी
चाहिये कि कहीं स्नेह कड़ाही से बाहर न निकल जाए क्यों कि क्षार पदार्थों के योगसे स्नेह में
अत्यधिक झाग आते हैं। ४-जिस प्रयोगमें जितने स्नेह का पाक करने का विधान हो उतना ही लेना चाहिये उससे आधे
चौथाई या दो चार गुने स्नेह का पाक ठीक नहीं होगा। ५-जहां किसी गणकी समस्त औषधियां न मिल सकें वहां जितनी मिल जाएं उन्हीं से काम लेना चाहिये। ६–यदि स्नेह को दूधके साथ सिद्ध करना हो तो २ दिनमें, स्वरसके साथ सिद्ध करना हो तो.३
दिनमें और तक्र, कांजी आदि से सिद्ध करना हो तो ५ दिनमें पाक पूर्ण करना चाहिये अर्थात् पहिले दिन थोड़ी देर पका कर छोड़दे और फिर दूसरे दिन पकावे । इस प्रकार एक ही
दिनमें पाक सिद्ध न करके कइ दिनमें पूर्ण करने से स्नेह अधिक गुणवान बनता है। स्नेह सिद्धिके लक्षण-यदि स्नेह का कल्क अग्निमें डालने से किसी प्रकार का शब्द न हो तो स्नेह
को सिद्ध समझना चाहिये । घृत का पाक पूर्ण होने के समय खूब झाग उठते हैं। स्नेह पाक ३ प्रकार का होता है, मृदु, मध्यम और खर । यदि स्नेह का कल्क किञ्चित् रसयुक्त हो
तो उसे मृदु पाक और नीरस किन्तु कोमल हो तो मध्यम पाक और कठिन हो तो खर पाक
समझना चाहिये। इन तीनों प्रकारके पाकोंमें मध्यम पाक सर्वोत्तम और खर पाक निकृष्ट माना गया है परन्तु मालिशके
लिये खर पाक ही उत्तम होता है।
अकारादि घृत प्रकरणम् आर्द्रकखरसप्रस्थं घृतप्रस्थे विपाचयेत् । [१५६] अग्निघृतम् (१) (वृ. नि. र.) | एतदग्निघृतं नाम मन्दामिना प्रशस्यते ॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं गजपिप्पली। अर्शसां नाशनं श्रेष्ठं तथा गुल्मोदरापहम् । हिङ्गु चव्याजमोदा च पञ्चव लवणानि च ॥ | नाशयेद् ग्रहणीदोषं श्वयधुं सभगन्दरम् ॥ द्वौ क्षारौ हवुषा चैव दद्यादईपलोन्मिता। | ये च बस्तिगता रोगा ये च कुक्षिसमाश्रयाः। दधिकाञ्जिकसूक्तानि स्नेहमात्रासमानि च ॥ सर्वोस्तानाशत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः ॥ ___नोट-घृत के समान ही तेलादि समस्त स्नेहोंका पाक किया जाता है केवल मूर्छा विधिमें अन्तर होता है जो तेलप्रकरण में लिखा जायगा।
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