Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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अकारादि-रस
भाग, काली मिर्चका चूर्ण ३ भाग । सबको खरल । भरकर बालुका यन्त्र में रस सिन्दूर बनाने की विधिसे करके नीबूके रसमें घोटे । इसके सेवनसे दारुण क्रमवर्द्धित अग्नि पर) पकावें । (यदि १० तोले अग्निमांद्यको शीघ्र ही नाश हो जाता है। इसे घी । गन्धक हो तो ३० घण्टे पकाना पर्याप्त है) इसके और खांडके साथ सेवन करनेसे क्षीण व्यक्ति हाथी
बाद जब शीशी स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से के समान पुष्ट हो जाता है। और घी पीपल से
रसको निकालकर ताम्र सहित पीस लें और उसे
चित्रक तथा त्रिफलाके क्वाथमें पृथक् पृथक् खरल ग्रहणी विकारों का नाश होता है । इसे तक्रके साथ
करके (शराव सम्पुट में बन्द करके) पुट लगावें। सेवन किया जाए तो प्रमेह रोग नष्ट होता है।
इसी प्रकार चित्रक और त्रिफलाके क्वाथ में घोटकर इसके अतिरिक्त उचित अनुपान के साथ देनेसे यह
दस पुट दें । तत्पश्चात् गिलोय, भंगरा, संभालु, शोथ, ज्वर, अरुचि, गुल्म, शूल, पाण्डुरोग, उदर- |
सूरण (जिमीकन्द) और विधारे के स्वरस या काथमें रोग और अर्शको भी नष्ट करता है । मात्रा-४ | पृथक् पृथक् ७--७ दिन खरल करें। रत्ती । और छाछके साथ सेवन करनेसे शोष-ज्वर, | इसे सूरण के चूर्ण और गुड़के साथ या शुद्ध अरुचि, शूल, गुल्म, पाण्डु, उदररोग, बवासीर, भिलावा, हरड और मधुके साथ सेवन करनेसे संग्रहणी, तथा प्रमेहका नाश होता हैं। अर्श, अग्निमांद्य, उदररोग, श्वास और वातव्याधि [२६३] अग्निकुमारो रसः (३१)
का नाश होता है । मात्रा–६ रत्ती (व्यवहारिक (र. यो. सा.)
मात्रा-१-२ रत्ती) विमर्दितो सूत वली समांशी
[२६४] अग्निकुमारलोहम् । ताम्रस्य पत्रेण विमर्च पाच्यौ।
__ (र. चि. । अ. ९) विमर्दयेद्वद्विवरारसाभ्यां
तुत्थरामठटङ्कानि सैन्धवं धान्य जीरकम् । पुटं च दद्यादशधा पुनस्तत् ॥
यमानी मरिचं शुण्ठी लवङ्गैलाविडङ्गकम् ॥ गुडूचिकाभृङ्गरसद्रवेण च
प्रत्येकं तोलकं चूर्ण लौहचूण तु तत्समम् । - निर्गुण्डिकामुरणवृद्धदारुकैः। रसस्य गन्धकस्यापि पलैकं कज्जली कृतम् ।। विमर्दयेत्सप्तदिनं पृथक् पृथक्
घृतेन मधुना खाद्यं लौहमग्नि कुमारकम् । सिद्धोभवेदग्निकुमार नामकः ।। यकृत्प्लीहोदरहरं गुल्मं चापि हलीमकम् ॥ अर्शोनचूर्णेन गुडान्वितेन
बलवर्णाग्नि जननं कान्तिपुष्टि विवद्धनम् । भल्लातपथ्यामधुनाऽपि युक्तः । श्रीमद्गहननाथेन निर्मितं विश्व सम्पदे । अर्थोविकारञ्जयति द्विवल्लो
___तूतियाकी भस्म, भुनी हुई हींग, सुहागे की मान्द्योदरश्वाससमीरणांश्च ॥ खील, सेंधा नमक, धनियां, जीरा, अजवायन,काली शुद्ध पारा, गन्धक और ताम्र पत्र समान । मिर्च, सोंठ, लौंग, छोटी इलायची और बायबिडङ्ग, भाग लेकर पारदमें ताम्रपत्र डालकर खरल करें जब इनका ११-१। तोला चूर्ण ले। लोहभस्म सबके दोनोंकी पिष्टी हो जाए तो उसमें गन्धक मिलाकर बराबर । तथा पारद और गंधककी कजली ५ कज्जली बनावें । तदनन्तर उसे (आतशीशी में तोला । इसे धी और शहद के साथ मिलाकर सेवन
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