Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४२१
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___ आकका दूध, जपापुष्प, तिलका तेल और | श्वेत आककी जड़की छालको कांजी में पीसलाखका रस समान भाग लेकर बारीक पीसकर लेप कर लेप करनेसे बद्धमूल श्लीपद भी नष्ट हो करनेसे सात दिनमें कण्ठमाला नष्ट हो जाती है। | जाता है।
(८८८४) अर्कक्षीरादिलेपः (२) (८८८७) अर्जुनादिलेपः (व. से. । क्षुद्ररोगा. ; शा. सं.।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ५७) ____ खं. ३. अ. ११)
अर्जुनं च कदम्बं च कुष्ठं गैरिकमेव च । अर्कक्षीरहरिद्राभ्यां मर्दयित्वा प्रलेपनात् ।।
लेपनं त्वचो दोषाणां वारणं बालकस्य च ॥ मुखकाये शमं याति चिरकालोद्भवं ध्रुवम् ।। |
____ अर्जुनकी छाल, कदम्बकी छाल, कूठ और हल्दीके चूर्णको आकके दूधमें खरल करके
गेरु समान भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर लेप लेप करनेसे मुखकी पुरानी श्यामता भी नष्ट हो
करनेसे बालकोंके त्वम्विकार नष्ट होते हैं।
(८८८८) अशोहरलेपः (१) जाती है।
(र. चि. म.। स्त. ९) (८८८५) अर्कक्षीरादिलेपः (३) गवास्थि सावरं रोधं रसाअनं तथैव च । (न. मृ. । त. ६)
लागलीमूलमध्यानि समभागानि कारयेत् ।। गोघृतमर्कदुग्धं च माक्षिकं समभागतः । एतेन नाभिलेपेन सर्वतश्चतुरङ्गुलात् । कांस्यपात्रे मर्दयित्वा शिश्ने नित्य विमर्दयेत ॥ पतेदांसि सर्वत्र सप्तवारान संशयः ॥ मासैकमर्दनेनैव शैपिल्यं च विनाशयेत् । सिद्धोर्शसां प्रयोगोऽयं न च भयो भवन्ति च ॥ हस्तमैथुनजं दुःखं प्रणश्यति न संशयः॥ गायकी हड्डी, लोध, रसौत और कलियारीकी
गायका घी, आकका दूध और शहद समान | जड़के भीतरका काष्ठ समान भाग लेकर ( पानीके भाग लेकर तीनोंको कांसीके पात्रमें डालकर मर्दन साथ ) बारीक पीस लें और नाभिके चारों ओर करें ।
चार अंगुल दूर तक इसका लेप करें। इस नित्य प्रति शिश्न पर इसकी मालिश करनेसे | प्रयोगसे सात दिन में अर्शके मस्से नष्ट हो जाते १ मासमें शिश्नकी शिथिलता और हस्तव्यभि- हैं और फिर पैदा नहीं होते। अर्शके लिये यह चार जनित रोगोंका नाश हो जाता है । एक सिद्ध प्रयोग है। (८८८६) अर्कादिलेपः
(८८८९) अशोहरलेपः (२)
(ग. नि. । अर्शों. ४ ; र. चि. म. । स्त. ९) (व. से. । इलीपदा.)
उलूकास्थिगृध्रलिण्ड मानुषास्थि तथैव च। निष्पिष्टमारणालेन रूपिकामूलबल्कलम् । एतेन नाभिलेपेन सर्वतश्चतुरङ्गुल्लात् ॥ प्रलेपाच्छ्लीपदं हन्ति बद्धमूलमपि स्थिरम् ॥ | गुदजानि विनश्यन्ति न तु भूयो भवन्ति हि ॥
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