Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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- भैषज्य रत्नाकरः
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भारत
[ अकारादि
हीरा भस्म २ भाग, स्वर्ण भस्म ३ भाग, प्लीहं गुल्मजलोदरं कटिभवं शूलं पुनर्जाठरं और पारद भस्म ६ भाग लेकर सबको एकत्र | शोफं चामसमुद्भवं बहुरुजं दुग्धोदनं भक्षणे ॥ मिलाकर १ दिन गोखरुके रस में खरल करें ।
इसके सेवन से ज्वरसहित राजयक्ष्मा नष्ट हो जाता है । यह रस साध्यासाध्य हर प्रकार के क्षयको नष्ट कर देता है ।
साधारणतः इस पर मृगाक रसके समान अनुपान देना चाहिये |
विशेष अनुपान - जम्बीरी नीबू के रसके साथ स्नुही ( थूहर ) की जड़का चूर्ण खिलाना चाहिये । ( पूर्ण लाभ प्राप्त करनेके लिये ) यह रस ३ निष्क खिलाना चाहिये ।
अग्निरसः (२)
(भै. र. । अग्निमांद्या. )
प्र. सं. ८३२३ स्वयमग्निरसः नं. १ देखिये
अग्निसूनुरस:
प्र. सं. २६२ अग्निकुमार रस देखिये । (८९३३) अजीर्णहररसः ( यो. र. अजीर्णा. )
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शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध हरताल ( या हरताल भस्म ), शुद्ध बछनाग, सुहागे की खील, जवाखार, भरंगी, चीतामूल, पुनर्नवा, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, हर्र, बहेड़ा और आमला समान भाग लेकर प्रथम पार गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर १-१ दिन भंगरे, संभालु, अदरक और बिजौरेके रसमें घोट कर ५-५ रत्तीकी गोलियां बना ले 1 इनके सेवन से भारीसे भारी पदार्थ भी पच जाते हैं तथा यह रस प्लीहा - वृद्धि, गुल्म, जलोदर, कमरके शूल, उदरशूल और आम - जनित शोथको नष्ट करता है ।
पथ्य -- दूध भात | (८९३४) अपस्मारनाशनरसः
( र. र. स. । उ. अ. २३) रसगन्धशिलातुत्थकान्तहेमाधिफेनकम् । रजनी तेजनीवीजं कर्षमात्रं पृथग्युतम् ॥ निम्बुवान्तौ तेनान्तर्लिप्तां ताम्रपलोन्मिताम् । पात्रीं न्युब्जां सुभाण्डान्तां रुध्वा खर्परिकां श्रुताम् भस्मनाऽऽ पूर्य भाण्डान्तर्धृत्वाऽधो द्विनिशं पचेत् । स्वाङ्गशीतं विचूर्थ्याथ रसोऽपस्मारनाशनः ॥! वल्लभस्योदये दद्याद्राव्योषविडङ्गयुक् । अनुदेयमजामूत्रं ततोऽर्धमहरे गते || सार्पपे पोडशपले तैले तत्कलितं पचेत् । क्षिता । नस्यं तैलेन तेनास्य दद्यात्सव्योषण तु ||
।
सूतं गन्धकतालकं विषयुतं टङ्कं यवक्षारकं भार्गी पुनर्नवा त्रिकटुकं लोहाभ्रकं त्रैफलम् चूर्ण भृङ्गरसेन मर्दितमन निर्गुण्डिकाद्रावकैः पश्चाद्रार्द्रकवीजपूरकर सैर्देया पुनर्भावना || भुक्तं जीर्यति भोजनं गुरुतरं मांसादिकं पिष्टकं | गुञ्जापञ्चकसम्मितस्य वटिका श्रीभैरवाच्छ |
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