Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
६१७
वहिः काष्ठोदुम्बरी सोमराजी
__ शुद्ध गंधक, शुद्ध पारद, बाबचीके बीज, श्रेष्ठा तद्वद्राजटक्षो विडाम् । पलाश ( ढाक ) के बीज, चीतामूल और सोंठ लेहं कृत्वा लेपयेऽष्टकुष्ठं
समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली गुमायुग्मं भक्षयेद्वै रसं च ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का पूर्ण दूदूकुष्ठं श्वेतकुष्ठं विचर्ची
| मिलाकर खरल करके सूक्ष्म चूर्ण बना लें। . सत्यं सत्यं नाशयेत्त्वग्गदांश्च ॥
इसे धी और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक २-२ भाग तथा ! और पथ्य पालन करनेसे कुष्ठ नष्ट हो जाता है। लोहभस्म १ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके
(९५१९) कुष्ठनाशनरसः कजली बनावें और उसे १ दिन घृतकुमारीके रसमें
( र. र. स. । उ. अ. २०) खरल करके सबका एक गोला बना लें । एवं उसे लोहपात्र में रखकर अग्नि पर चढ़ावें और उसमें
सूतभस्म द्विनिष्कं स्याद् गन्धकं च चतुष्पलम् । थोड़ा थोड़ा गोमूत्र डालते हुवे २ पहर मन्दाग्नि
सार्ध चतुष्पलं चित्रं चतुर्विशत्पलं भवेत् ।। पर पाक करें । तत्पश्चात् आधा पहर तक तीवाग्नि | वाकुचीबीजचूर्णस्य द्वादशैव मरीचक्रम् । जला कर, स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल सर्वमेकत्र संयोज्य निष्कद्वितयसम्मितम् ॥ कर पीस लें। मात्रा-२ रत्ती।
मधुना लेहयेत्मातः सर्वकुष्ठविनाशनः ॥ इसे खाने और निम्न लिखित लेप लगानेसे
पारद भस्म २ निष्क (१० माशे), शुद्ध दाद, श्वेतकुष्ठ, विचर्चिका और त्वदोष अवश्य
गंधक २० तोले, चीतामूल २२।। तोले, बाबचीके नष्ट हो जाते हैं।
बीज १२० तोले और काली मिर्च ६० तोले
लेकर सबको एकत्र खरल करके बारीक चूर्ण बनावें। लेप-चीतामूल, कठूमर, बाबची, हर्र, बहेड़ा, आमला, अमलतासको छाल और बाय
मात्रा-२ निष्क ( १० माशे )। बिडंग; सबके बारीक चूर्णको पानीके साथ पीस । इसे प्रातः काल शहदके साथ सेवन करनेसे कर गाढ़ा गाढ़ा लेप बना लें।
समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं । (९५१८) कुष्ठदलनरसः
(९५२०) कुष्ठाङ्कुशरसः ( रसे. चि. म. । अ. ९; र. का. धे. । कुशा.) ( र. का. थे. । कुष्टा.) गन्धं रसं पाकुचिकोत्थबीज
शुद्धमूतं द्विधा गन्धं मर्दयेद्धाकुचीद्रवैः । ___ पलाशबीजं च कृशानुशुण्ठी । निर्गुण्डयाश्च द्रवैश्चाहस्तगोलं शोषयेत्ततः ।। श्लक्ष्णानि मध्वाज्ययुतानि कृत्वा गोलतुल्ये ताम्रपाने इण्डिकान्तनिरोधयेत् ।
सेवेत कुष्ठी च हिताशनस्तु । मूलवणैर्लेपयेत्सन्धि ताम्रपाने निरोधयेत् ॥
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